Saturday, April 25, 2009

न मौसम का भरोसा है

हवाओं का भरोसा है न मौसम का भरोसा है;
चमन को अब बहारों का न शबनम का भरोसा है।

विषैली बेल शंका की उगी विश्वास की जड़ में,
न फूलों का न खुशबू का न आलम का भरोसा है।

जड़ों में नाग लिपटे हैं जमे हैं गिद्ध डालों पर,
कहाँ बैठें न बरगद का न शीशम का भरोसा है।

दवा के नाम पर अब तक कुरेदा सिर्फ़ घावों को,
भरें कैसे हकीमों का न मरहम का भरोसा है।

घिरे हैं राहुओं और केतुओं से चाँद सूरज अब,
उजालों का सितारों का न पूनम का भरोसा है।

पतन की राह में अब सभ्यता इस दौर तक पहुँची,
जुलेखा का न सीता का न मरियम का भरोसा है।

पता क्या खींच ले कब कौन नीचे का बिछावन भी,
अजब हालात हैं कुर्सी न जाजम का भरोसा है।

जुलाहों की बुनी चादर सिकुड़ कर हो गई छोटी,
करें अब क्या न खादी का न रेशम का भरोसा है।

नदी आश्वासनों की सिर्फ़ सूखी रेत दिखती है,
न 'भारद्वाज' उदगम का न निर्गम का भरोसा है।

चंद्रभान भारद्वाज




6 comments:

"अर्श" said...

भारद्वाज जी सादर प्रणाम ,
वेसे तो हर शे'र ही दाद के काबिल है मगर इस नए पण लिए शे'र के क्या कहने मुश्किल से ही ऐसे शे'र पढने को मिलते है ....
पता क्या खींच ले कब कौन नीचे का बिछावन भी,
अजब हालात हैं कुर्सी न जाजम का भरोसा है।

बहोत ही खुबसूरत ग़ज़ल कही है आपने .. मेरी नयी ग़ज़ल पे आपका आशीर्वाद और प्यार वांछनीय है ...

आपका
अर्श

अनिल कान्त said...

waah maza aa gaya ...aap chha gaye

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

दवा के नाम पर अब तक कुरेदा सिर्फ़ घावों को,
भरें कैसे हकीमों का न मरहम का भरोसा है।

पतन की राह में अब सभ्यता इस दौर तक पहुँची,
जुलेखा का न सीता का न मरियम का भरोसा है।


पता क्या खींच ले कब कौन नीचे का बिछावन भी,
अजब हालात हैं कुर्सी न जाजम का भरोसा है।


इन लाइनों तो बहुत ही प्रभावित किया....

बहुत ही सुन्दर गजल है यी आपकी......

गौतम राजऋषि said...

आदरनीय चंद्रभान जी को इस सुंदर ग़ज़ल पर करोड़ों बधाई...
हर शेर बेमिसाल
दिल से दाद दे रहा हूँ सर !
"दवा के नाम पर अब तक कुरेदा .." वाला हो या फिर "पता क्या खींच ले कब कौन नीचे का बिछावन भी" वाला....बस लाजवाब

gazalkbahane said...

बहुत खूबसूरत तरीके से शब्दों एवं प्रतीको का उपयोग किया है,जनाब आपने बधाई
श्याम सखा‘श्याम’

दवा के नाम पर अब तक कुरेदा सिर्फ़ घावों को,
भरें कैसे हकीमों का न मरहम का भरोसा है।

घिरे हैं राहुओं और केतुओं से चाँद सूरज अब,
उजालों का सितारों का न पूनम का भरोसा है।

पतन की राह में अब सभ्यता इस दौर तक पहुँची,
जुलेखा का न सीता का न मरियम का भरोसा है।

पता क्या खींच ले कब कौन नीचे का बिछावन भी,
अजब हालात हैं कुर्सी न जाजम का भरोसा है।

जुलाहों की बुनी चादर सिकुड़ कर हो गई छोटी,
करें अब क्या न खादी का न रेशम का भरोसा है।

नदी आश्वासनों की सिर्फ़ सूखी रेत दिखती है,
न 'भारद्वाज' उदगम का न निर्गम का भरोसा है।

Prabhu Trivedi said...

श्रध्देय भाई साहब,
'न मौसम का भरोसा है ' गज़ल में प्रयुक्त सभी शब्दों ने आनंद बरसा दिया। बनावट व बुनावट दोनों प्रभावित करती है। आप सिध्दहस्त हैं। बधाइयाँ स्वीकारें।