Thursday, October 18, 2018
रात में बिजली से जगमग जो शहर लगता है
लोग सहमे हुए लगते हैं जहाँ पग पग पर
वक्त ने ऐसा अविश्वास किया है पैदा
साँस लेना भी सुबह शाम हुआ है मुश्किल
लूट दुष्कर्म कि हत्याओं की घटनाओं से
वक़्त के संग यहाँ लोग बदलते रंगत
शख्स जो रोज नया पहने मुखौटा फिरता
पथ्य बीमार को देते हैं समझ कर अमृत
बाद मुद्दत के भरद्वाज चढ़ा जब चौखट
Tuesday, September 25, 2018
उस राह से गुजरना
जिस पर चला न कोई उस राह से गुजरना
आदर के साथ जीना साहस के साथ मरना
ऊँचाइयों पे चढ़ना आसान ज़िंदगी में
लेकिन बहुत कठिन है गहराई में उतरना
क्या आसमान देंगे तेरी उड़ान को वे
जिनका है काम उड़ते पंछी के पर कतरना
वे लोग क्या करेंगे तुरपन फटे हुए की
जिनकी रही है आदत दामन सदा कुतरना
मतलब नहीं विजय का हर दाँव जीत जाना
है अर्थ हर विजय का गिर गिर के फिर सँवरना
जो बाँध कर गले में पत्थर स्वयं ही डूबा
मुश्किल है उसका बच कर फिर से कहीं उबरना
जो 'भारद्वाज' लिक्खा है प्यार के रँगों से
निश्चित कहीं क्षितिज पर उस नाम का उभरना
चंद्रभान भारद्वाज
'
Sunday, September 9, 2018
प्रेम की कहानी
इतनी सी बस रही है इक प्रेम की कहानी
मटके से पार करते उफनी नदी का पानी
आती है बन के बाधा हर प्रेम की डगर में
खोई हुई अँगूठी भूली हुई निशानी
इस प्रेम-यज्ञ में जो प्राणों को होम करती
होती है या दिवानी या होती है शिवानी
यह प्रेम सत्य भी है शिव भी है सुंदरम भी
इस भाव का नहीं है जीवन में कोई सानी
आता है प्यार का जब मौसम बहार बनकर
होती हैं अंकुरित खुद सूखी जड़ें पुरानी
इक डोर में बँधे पर रहते अलग अलग हैं
आपस का हाल पूछें बस और की जबानी
हैं 'भरद्वाज़' इसमें अक्षर तो बस अढ़ाई
पर प्रेम को न समझे विद्वान् और ज्ञानी
चंद्रभान भारद्वाज
Saturday, September 1, 2018
तारों से पूछना
रातों की सब कहानियाँ तारों से पूछना
पीड़ाएँ इंतजार की द्वारों से पूछना
तप तप के प्रेम-अग्नि में क्यों राख हो गए
तपने का अर्थ प्रेम के मारों से पूछना
सहती रही है मार इक इक तंतु के लिए
धुनती रुई का दर्द पिंजियारों से पूछना
दाना नहीं मिला कभी पानी नहीं मिला
यायावरी का हाल बनजारों से पूछना
जब नींव की हर ईंट को खुद तोड़ते रहे
गिरने का क्यों सवाल दीवारों से पूछना
हर राग रागहीन है लयहीन रागिनी
सुरहीन क्यों अलाप फनकारों से पूछना
घर में डरे हुए डगर में भी डरे हुए
डर का सुराग आग तलवारों से पूछना
अब देश प्रांत गाँव घर सारे बँटे हुए
बंटने का राज भाषणों नारों से पूछना
हम 'भारद्वाज' कल थे जो हैं आज भी वही
बदली नज़र उन्होंने क्यों यारों से पूछना
चंद्रभान भारद्वाज
Friday, August 24, 2018
मंजिल तलाशना
राहें तलाशना नई मंजिल तलाशना
दुख दर्द संग बाँट ले वह दिल तलाशना
इंसान शून्य कर दिया है आज वक्त ने
फिर दशगुना बने कोई हासिल तलाशना
चेहरे को सिर्फ देख कर संभव नहीं रहा
आदिल तलाशना कोई काबिल तलाशना
हर डाल पर जमी है कौओं की बिरादरी
है काँव काँव में कठिन कोकिल तलाशना
कोई सबूत ही नहीं छोड़ा है खून का
मुश्किल हुआ कटार या कातिल तलाशना
अब तक तो हर खुशी पे ही जैसे ग्रहण लगा
जीवन के शेष पल सभी झिलमिल तलाशना
जब भी अचानक ठंड के मौसम का हो असर
सेहत सुधारने को गुड़ और तिल तलाशना
तूफान ने बड़े किये हम पाल पोस कर
आदत हमारी है नहीं साहिल तलाशना
ग़ज़लों की सिर्फ बात भारद्वाज हो जहाँ
कोई किताब या कोई महफिल तलाशना
चंद्रभान भारद्वाज
Tuesday, August 14, 2018
जीने का मज़ा आने लगा
तन भी हरसाने लगा है मन भी हरसाने लगा
उसके आ जाने से जीने का मज़ा आने
जिस जगह पसरी हुई थीं हर तरफ खामोशियाँ
देख उसको घर का कोना कोना बतियाने लगा
एक पल भी एक युग जैसा लगा उसके बिना
संग उसके तो समय का ज्ञान बिसराने लगा
जब कभी उतरी है उसकी छवि हमारे ध्यान में
बंद आँखों में उजाला सा नज़र आने लगा
मिल गया जब खाद पानी उसके निर्मल प्यार का
प्राण का सूखा बगीचा सहसा हरयाने लगा
उसने जब से है चखाई बूटी अपने प्यार की
चढ़ गया उन्माद तन मन पर नशा छाने लगा
पा गए जीवन में परमानंद 'भारद्वाज़ 'हम
उसका जब आभास धीरे धीरे दुलराने लगा
चंद्रभान भारद्वाज
Saturday, August 11, 2018
दीवारें वहाँ ऊँची हुईं हैं
हमारे गाँव की गलियाँ भले पक्की हुईं हैं
मगर आँगन की दीवारें वहाँ ऊँची हुईं हैं
बँटे हैं लोग धर्मों जातियों की गोटियों में
लगा शतरंज की बस बाजियाँ पसरी हुईं हैं
वहाँ तक गैस बिजली नैट मोबाइल तो पहुचा
मगर अब दाल सब्जी रोटियाँ मँहगी हुईं हैं
नई पीढ़ी समझती ही नहीं है अपना रिश्ता
सभी के बीच रेखाऐं बहुत चौड़ी हुईं हैं
युवा नारी हो वृद्धा हो कि हो मासूम बच्ची
हुईं हैं या तो गुमसुम या डरी सहमी हुईं हैं
कभी आशीष देतीं थी जो सिर पर हाथ रख कर
सियासत ने वो चाची ताइयाँ बाँटी हुईं हैं
वो भारद्वाज निश्छलता वो भोलेपन की मूरत
सभी छवियाँ पुरानी आँख में धुँधली हुईं हैं
चंद्रभान भारद्वाज
Tuesday, April 17, 2018
प्रार्थनाएं शेष हैं
कामनाएं शेष हैं कुछ लालसाएं शेष है
अंत में जीवन के केवल प्रार्थनाएं शेष हैं
ऊर्जा सारी हुई है व्यय जगत जंजाल में
शब्द हैं अब मौन होठों पर व्यथाएं शेष हैं
मन का मृग तो अब तलक ऊँची कुलाँचें भर रहा
तन की गाडी खींचने को बस दवाएं शेष हैं
तेल प्राणों के दिये का चुक रहा है रात दिन
साँस की कुछ अधजली सी वर्तिकाएं शेष हैं
जो भी जीवन ने कमाया मृत्यु ने छीना सभी
कुछ प्रशंसाएं कि कुछ आलोचनाएं शेष हैं
हो गए हैं आजकल वे बंद कारागार में
कुर्सियों पर किंतु उनकी पादुकाएं शेष हैं
तोड़ डाली हैं भले ही पत्थरों की मूर्तयाँ
पर समय के वक्ष पर उनकी कथाएं शेष हैं
खींच कर जाता है लक्ष्मण नित्य रेखा द्वार पर
फिर भी सीता हरण की संभावनाएं शेष हैं
तम तो भारद्वाज चारों ओर गहराया हुआ
सूर्य पर खग्रास की कुछ यातनाएं शेष हैं
चंद्रभान भारद्वाज
672, साँई कृपा काॅलोनी
बाॅम्बे हास्पीटल के पास
इंदौर म प्र 452010
मो 9826025016
अपनी नागरी अच्छी लगी
मधुकरी अच्छी लगी यायावरी अच्छी लगी
बात बस सीधी सरल सच्ची खरी अच्छी लगी
स्वर्ण से मंडित सुसज्जित अप्सरा के सामने
गाॅव की मिट्टी से लथपथ सुंदरीअच्छी लगी
द्वार तक आया हुआ खारा समुंदर छोड़ कर
प्रेम से परिपूर्ण मधुरस गागरी अच्छी लगी
रूप में अभिमान हो तो कोई आकर्षण नहीं
प्रिय समर्पित पर सलोनी सांवरी अच्छी लगी
आँधियों में भी तने के साथ जो लिपटी रही
वह स्वकीया नायिका सी वल्लरी अच्छी लगी
फ्रीज की बासी मसालेदार सब्जी की जगह
खेत से लाई तरो ताजा हरी अच्छी लगी
बाहुबल धनबल कि छलबल से बिकीं सब कुर्सियां
पर तमाशा देखने हमको दरी अच्छी लगी
काफिया जांचे बहर परखी गजलियत देखली
शेरगोई में सहज कारीगरी अच्छी लगी
है कठिन इसके भरोसे उच्च वेतन उच्च पद
फिर भी 'भारद्वाज' अपनी नागरी अच्छी लगी
चंन्द्रभान भारद्वाज
Monday, February 26, 2018
(१) खिलखिलाती देहरी घर की
कदम छूते ही उसके खिलखिलाती देहरी घर की
मिला है जब से वह मन में सँभलती ही नहीं खुशियाँ
लगा जैसे मिली है कोई अनुपम देन ईश्वर की
जला दीपक सजल आँखें महकती फूलमालाएं
प्रतीक्षा में खड़े लगते हैं युग से अपने प्रियवर की
पड़ी इक दृष्टि जब उसकी हुए सब वक्र ग्रह सीधे
फली लगती है अपनी पुण्यताई अब उमर भर की
अचानक फैल जाती है लजाने की लहर मुख पर
झलक पाती है जब प्रिय की गली में खिड़की ऊपर की
भले हों शब्द सादे अर्थ पर गंभीर देते हैं
बदलती भंगिमाएं प्यार में हर शब्द अक्षर की
जिन्होंने सीप के व्यापार में ही उम्र सब खोई
समझ पाएंगे कीमत कैसे 'भारद्वाज' गौहर की
चंद्रभान भारद्वाज
(२) मिसरा तू
रहा है ऊला मिसरा तू रहा सानी भी मिसरा तू
मेरी ग़ज़लों के हर इक शेर में लगता है उतरा तू
बता कैसे कटेगी ज़िंदगी पल भर भी बिन तेरे
लहू बन कर नसों में बह रहा जब कतरा कतरा तू
उतरता ही नहीं है ध्यान से मासूम चेहरा अब
मिलन से हो गया है और ज्यादा निखरा निखरा तू
ग़ज़ल में या निकलता दोष या हो जाती बे-बहरी
लगा जब खोया खोया या लगा जब बिखरा बिखरा तू
दिलों के बीच अपने जब कोई सरहद नहीं खींची
न देता कोई पहरा मैं न देता कोई पहरा तू
नज़र के सामने रखकर तुझे जब सोचता हूँ मैं
तमन्नाओं की महफ़िल में लगा सपना सुनहरा तू
रहा है इसलिए खुशहाल 'भारद्वाज' अपना घर
रहा हूँ बन के गूँगा मैं रहा है बन के बहरा तू
चंद्रभान भारद्वाज
(३)रूप का निखार मुझे
कभी तो केश कभी रूप का निखार मुझे
बना गए हैं सभी सिर्फ इश्तिहार मुझे
उड़ा रहा है हवा में मुझे अहम् का नशा
कहीं जमीन पे मालिक मेरे उतार मुझे
लगा कि जैसे मेरी अस्मिता ही सुन्न हुई
जरा तू यार मेरे नाम से पुकार मुझे
हुआ था पार किनारों ने साथ छोड़ दिया
गए हैं अपने भी पीछे से धक्का मार मुझे
लुटा चुका हूँ यहाँ ज़िंदगी के स्वप्न सभी
मिली हैं साँसें भी गिनती की अब उधार मुझे
समझ न आये कि तुरपन करूँ कहाँ से शुरू
किया हुआ है ज़माने ने तार-तार मुझे
बना सकूँ जो 'भरद्वाज ' मैं स्वयं को दिया
डरा सकेगा न फिर पथ का अंधकार मुझे
चंद्रभान भारद्वाज
(४) दिन में भी जलाते दीया
रूप के रहते हुए घर में सजाते दीया
लोग अनजान हैं दिन में भी जलाते दीया
उनको राहों में उजालों की जरूरत क्या है
जो अँधेरों में स्वयं को ही बनाते दीया
उनके हाथों में कला है कि बला का जादू
छू लें मिटटी को तो पल भर में बनाते दीया
ज़िंदगी जिनकी अँधेरों में ही गुजरी पूरी
मौत पर उनकी मज़ारों पे जलाते दीया
पुत्र तो छोड़ गया उनको अनाथालय में
उसको मां-बाप मगर कुल का बताते दीया
खुद तो जीवन में दिया कोई जला पाए नहीं
किंतु औरोँ का जला रोज बुझाते दीया
खुद का आँचल भी 'भरद्वाज ' जला बैठे हैं
अपने आँचल को बचाते कि बचाते दीया
चंद्रभान भारद्वाज
बना गए हैं सभी सिर्फ इश्तिहार मुझे
उड़ा रहा है हवा में मुझे अहम् का नशा
कहीं जमीन पे मालिक मेरे उतार मुझे
लगा कि जैसे मेरी अस्मिता ही सुन्न हुई
जरा तू यार मेरे नाम से पुकार मुझे
हुआ था पार किनारों ने साथ छोड़ दिया
गए हैं अपने भी पीछे से धक्का मार मुझे
लुटा चुका हूँ यहाँ ज़िंदगी के स्वप्न सभी
मिली हैं साँसें भी गिनती की अब उधार मुझे
समझ न आये कि तुरपन करूँ कहाँ से शुरू
किया हुआ है ज़माने ने तार-तार मुझे
बना सकूँ जो 'भरद्वाज ' मैं स्वयं को दिया
डरा सकेगा न फिर पथ का अंधकार मुझे
चंद्रभान भारद्वाज
(४) दिन में भी जलाते दीया
रूप के रहते हुए घर में सजाते दीया
लोग अनजान हैं दिन में भी जलाते दीया
उनको राहों में उजालों की जरूरत क्या है
जो अँधेरों में स्वयं को ही बनाते दीया
उनके हाथों में कला है कि बला का जादू
छू लें मिटटी को तो पल भर में बनाते दीया
ज़िंदगी जिनकी अँधेरों में ही गुजरी पूरी
मौत पर उनकी मज़ारों पे जलाते दीया
पुत्र तो छोड़ गया उनको अनाथालय में
उसको मां-बाप मगर कुल का बताते दीया
खुद तो जीवन में दिया कोई जला पाए नहीं
किंतु औरोँ का जला रोज बुझाते दीया
खुद का आँचल भी 'भरद्वाज ' जला बैठे हैं
अपने आँचल को बचाते कि बचाते दीया
चंद्रभान भारद्वाज
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