खड़े रहकर क़तारों में भी अब बारी नहीं आती
हमें क्रम तोड़ बढ़ने की कलाकारी नहीं आती
गँवा कर उम्र सारी हम लुटा बैठे हैं तन मन धन
वो कहते हैं हमें रस्मे वफादारी नहीं आती
उतरती आत्मा पहले किसी किरदार के अंदर
अदा संवाद करने से अदाकारी नहीं आती
कलम को डूबना पड़ता लहू में और आँसू में
फ़क़त कुछ शब्द रचने से गज़लकारी नहीं आती
नहीं रखता है जो इंसान अपने पाँव धरती पर
उसे खाए बिना ठोकर समझदारी नहीं आती
पिरोते हैं सुई में प्रेम के भी रेशमी धागे
न हों वे रेशमी धागे तो गुलकारी नहीं आती
स्वयं बनता है मिट्टी एक माली मिलके मिट्टी में
महज बीजों से 'भारद्वाज' फुलवारी नहीं आती
चंद्रभान भारद्वाज
Sunday, October 31, 2010
Friday, October 22, 2010
अकेलापन न देना
चाहे अवलंबन न देना
पर अकेलापन न देना
आग सा जलता रहेगा
प्रिय बिना यौवन न देना
भीख माँगे मृत्यु से जो
वह विवश जीवन न देना
एक पत्थर के ह्रदय में
प्यार की धड़कन न देना
रूप को अपरूप कर दे
धुंध में दर्पण न देना
माँग में सिन्दूर के बिन
चूड़ियाँ कंगन न देना
नित्य 'भारद्वाज' बिलखे
माँ बिना बचपन न देना
चंद्रभान भारद्वाज
पर अकेलापन न देना
आग सा जलता रहेगा
प्रिय बिना यौवन न देना
भीख माँगे मृत्यु से जो
वह विवश जीवन न देना
एक पत्थर के ह्रदय में
प्यार की धड़कन न देना
रूप को अपरूप कर दे
धुंध में दर्पण न देना
माँग में सिन्दूर के बिन
चूड़ियाँ कंगन न देना
नित्य 'भारद्वाज' बिलखे
माँ बिना बचपन न देना
चंद्रभान भारद्वाज
Tuesday, October 12, 2010
हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक
हर दिशा में इक सुलगती आग है मालिक
सभ्यता के चेहरे पर दाग है मालिक
वक़्त अमृत की नदी को कर रहा विषमय
ह़र मुहाने पर विषैला नाग है मालिक
घर जलाने का किसे हम दोष दें बोलो
देहरी पर सिर्फ एक चिराग है मालिक
हर नज़र ठहरी हुई है बाज सी उस पर
जिस वसीयत में हमारा भाग है मालिक
थपथपाकर पीठ चाकू भोंकते अक्सर
हम समझते थे बड़ा अनुराग है मालिक
रास्ते काँटों भरे चारों तरफ मिलते
जग बबूलों का महकता बाग़ है मालिक
बस व्यवस्था की बनी मोहताज अब ऐसी
ज़िन्दगी का नाम भागमभाग है मालिक
पोंछ देंगे लोग अपने हाथ की कालिख
आपकी चादर अगर बेदाग है मालिक
क्या पता किस वक़्त सिर से छीन ले कोई
शान से पहनी हुई जो पाग है मालिक
चंद्रभान भारद्वाज
सभ्यता के चेहरे पर दाग है मालिक
वक़्त अमृत की नदी को कर रहा विषमय
ह़र मुहाने पर विषैला नाग है मालिक
घर जलाने का किसे हम दोष दें बोलो
देहरी पर सिर्फ एक चिराग है मालिक
हर नज़र ठहरी हुई है बाज सी उस पर
जिस वसीयत में हमारा भाग है मालिक
थपथपाकर पीठ चाकू भोंकते अक्सर
हम समझते थे बड़ा अनुराग है मालिक
रास्ते काँटों भरे चारों तरफ मिलते
जग बबूलों का महकता बाग़ है मालिक
बस व्यवस्था की बनी मोहताज अब ऐसी
ज़िन्दगी का नाम भागमभाग है मालिक
पोंछ देंगे लोग अपने हाथ की कालिख
आपकी चादर अगर बेदाग है मालिक
क्या पता किस वक़्त सिर से छीन ले कोई
शान से पहनी हुई जो पाग है मालिक
चंद्रभान भारद्वाज
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