Sunday, February 10, 2013

नदी नाव जैसा है रिश्ता हमारा

कभी तो डुबाया कभी पर उबारा
नदी नाव जैसा है रिश्ता हमारा

कहीं गहरा पानी कहीं तेज धारा
समझते रहे थे जहाँ इक किनारा

रहा हमसफ़र जो रहा हम निवाला
उसी ने ही इस दिल में खंजर उतारा

जहाँ भी रही काठ की एक हांड़ी
चढ़ी है कहाँ आग पर वह दुबारा

बहाया समझ कर जिसे एक तिनका
वही बन गया डूबते को सहारा

रहा था सदा बख्शता ज़िन्दगी को 
मगर आज उसने ही बेमौत मारा

सिवा दर्द के और कुछ भी नहीं था
खुला जब थमी ज़िन्दगी का पिटारा

चमकता रहा जो अभी तक गगन में
वही आज डूबा हुआ है सितारा

हराता रहा था जिसे ज़िन्दगी भर
'भरद्वाज' उस से ही खुद  आज हारा

चंद्रभान भारद्वाज  

Friday, January 11, 2013

फँसा आदमी

कभी दफ्तरों में कभी कठघरों में
फँसा आदमी कागजी अजगरों में 

तमन्ना रही आसमानों को छूएं 
मगर ठोक रक्खी हैं कीलें परों में 

कहाँ से उगेगी नई पौध कोई 
घुने बीज बोये हुए बंजरों में 

अगर मर गईं सारी संवेदनाएं 
रहा फर्क क्या वनचरों में नरों में 

खड़े प्रश्न ही प्रश्न हर ओर अपने 
न है कोई विश्वास अब उत्तरों में 

मचलती हुई ज़िन्दगी थम गई है 
नदी जैसे खोई कहीं गह्वरों में 

करे राख अन्याय के हर किले को 
अगन ऐसी पैदा करें अक्षरों में 

जिसे खोजना था स्वयं के ही अंदर 
उसे खोजता आदमी पत्थरों में 

हुए हैं 'भरद्वाज'हालात ऐसे 
रहें ज्यों किराए से अपने घरों में 

चंद्रभान भारद्वाज