Thursday, December 8, 2011

ज़िन्दगी उत्तर भी है

ज़िन्दगी इक प्रश्न भी है ज़िन्दगी उत्तर भी है 
फल कहीं वरदान का शापित कहीं पत्थर भी है 


है गुनाहों और दागों से भरा दामन कहीं 
पर कहीं दरगाह  की इक रेशमी चादर भी है 

लग नहीं पाता किसी सूरत से सीरत का पता 
तह पे तह बाहर भी उसके तह पे तह भीतर भी है 


ज़िन्दगी खुद ही जुआ है खुद लगी है दाँव पर 
खुद शकुनि है खुद ही पासे और खुद चौसर भी है 


फब्तियाँ मक्कारियाँ चालाकियाँ बेशर्मियाँ 
आजकल की ज़िन्दगी बिग बॉस जैसा घर भी है 


करना परिभाषित कठिन है ज़िन्दगी का फलसफा 
बूँद सी छोटी भी है गहरा महासागर भी है 


झाँकती अट्टालिकाओं के झरोखों से कहीं 
पर कहीं फुटपाथ पर बेबस भी है बेघर भी है 


है ज़माने के निठुर हाथों की कठपुतली कभी 
पर कभी सीने पे उसके रेंगता अजगर भी है 


चल रहा है लाद 'भारद्वाज' कंधों पर जिसे 
पुण्य की है पोटली तो पाप का गट्ठर भी है 


चंद्रभान भारद्वाज








Monday, November 21, 2011

बराबर मिलेगा

न ज्यादा मिलेगा न कमतर मिलेगा
लिखा उसने जितना बराबर मिलेगा

जड़ें सींचना तो पड़ेंगी निरंतर

मगर डाल पर फल समय पर मिलेगा

जपोगे नहीं जब तलक उसको मन से

न बाहर मिलेगा न भीतर मिलेगा

पड़ेगी नज़र उसकी जिस पर भी सीधी

पड़ा था जो तळ में शिखर पर मिलेगा

न यादों से उसको सजाओगे हरदम

तो घर प्यार का एक खँडहर मिलेगा

मिला जिस शजर पर बहारों का मौसम

उसी पर ही इक रोज पतझर मिलेगा

बिना धूल खाए पसीना बहाए

न धरती मिलेगी न अम्बर मिलेगा

है ओढ़ी फकीरी तो परवाह कैसी

कहाँ रोटी कपड़ा कहाँ घर मिलेगा

हुई दृष्टि गहरी 'भरद्वाज' जिसकी

उसे बूँद में ही समुन्दर मिलेगा

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, November 13, 2011

मेरा लिखा रह जायगा

अनसुना रह जायगा कुछ अनकहा रह जायगा
मैं  रहूँ  या  ना  रहूँ  मेरा  लिखा  रह  जायगा

वक़्त के आगे नहीं रखता है जो अपने कदम
वक़्त के मलबे के नीचे वह दबा रह जायगा

रुक गया जिस दिन भी अपनी जिंदगानी का बहाव
खार कीचड़ काई या पानी सडा रह जायगा

शब्द में बाँधा नहीं यदि आज के अहसास को
सभ्यता की भीड़ में वह लापता रह जायगा

क्या पता नासूर सा बनकर उभर आएगा कब
बात का काँटा अगर दिल में चुभा रह जायगा

लोग जो जलती मशालों को बुझाने में लगे
एक दिन उनका भी चेहरा बदनुमा रह जायगा

लूटने में लग रहे जब लोग लाशों का कफ़न
कौन नंगों और भूखों के सिवा रह जायगा

डालियों  पर  गिद्ध  बैठे  हैं  जड़ों  में  दीमकें 
देखना यह पेड़ इक दिन खोखला रह जायगा

बागड़ें खुद खेत को जब रात दिन चट कर रहीं
फिर वहाँ बंजर धरा के और क्या रह जायगा

राज रथ चल कर सड़क से जाएगा संसद तलक
आदमी पहियों के नीचे ही पिसा रह जायगा

क्या करोगे अर्थ 'भारद्वाज' इतना जोड़कर
साथ अरथी जायगी बाकी धरा रह जायगा

चंद्रभान भारद्वाज







Wednesday, November 2, 2011

और क्या चाहिए

राह है वाह  है और क्या चाहिए 
प्यार हमराह है और क्या चाहिए 

दूर है पर किसी दिल में तेरे लिए 
प्यार की चाह है और क्या चाहिए 

प्यार विश्वास है आस है प्यास है 
दर्द है आह है और क्या चाहिए 

आँख में तो प्रतीक्षा रही प्यार की 
दिल में परवाह है और क्या चाहिए 

गोपियाँ नाँचतीं गायें चरतीं जहाँ 
वह चरागाह है और क्या चाहिए 

प्यार मंदिर है मस्जिद है गिरजा तो है 
एक दरगाह है और क्या चाहिए

प्यार ही राम है प्यार ईसा मसीह 
प्यार अल्लाह है और क्या चाहिए 

प्यार उन्माद है प्यार आल्हाद है 
प्यार उत्साह है और क्या चाहिए 

जिसका अबतक कहीं तल मिला ही नहीं 
प्यार बेथाह है और क्या चाहिए 

प्यार झुकता नहीं प्यार डरता नहीं 
खुद शहंशाह है और क्या चाहिए 

नाव जर्जर हवा तेज मझधार हो 
प्यार मल्लाह है और क्या चाहिए 

प्यार पिचकारियाँ मस्तियाँ शोखियाँ 
फागुनी माह है और क्या चाहिए 

प्यार ढलता ग़ज़ल में 'भरद्वाज' जब 
वाह ही वाह है और क्या चाहिए  


चंद्रभान भारद्वाज 

Monday, October 31, 2011

तलवार के पीछे

खूनी कथाएं लिख रहीं तलवार के पीछे 
दफना दिया हर राज़ पर अखबार के पीछे 

उम्मीद रक्खोगे बता क्या न्याय की उनसे 
जो खुद खड़े हैं आज गुनाहगार के पीछे 

ऊपर से देखेंगे अगर तो दिख नहीं पाता
अंदर छिपा है स्वार्थ हर उपकार के पीछे 

लगता अकेला सा अकेला है नहीं लेकिन 
इक दर्द रहता है सदा फनकार के पीछे 

रहता हँसाता भीड़ को जो रोज परदे पर
है आँसुओं की बाढ़ उस किरदार के पीछे 

लग तो रहा है चैन से बैठा हुआ होगा 
पर भग रहा है आदमी कलदार के पीछे 

सडकों पे आकर खुद पलट देती है अब तख्ता 
पड़ती है जब जनता किसी  सरकार के पीछे 

तकदीर में अक्सर भलाई के लिखीं चोटें 
है पत्थरों का ढेर हर फलदार के पीछे 

कोई सदी या सभ्यता कोई हो 'भारद्वाज' 
होते रहे हैं हादसे हर प्यार के पीछे

चंद्रभान भारद्वाज

Wednesday, October 19, 2011

फँस गये

कुछ सुबह और कुछ शाम में फँस गये
हर सड़क पर लगे जाम में फँस गये


कर के अपराध कुछ लोग चलते बने
कुछ किए बिन ही इल्ज़ाम में फँस गये


रीढ़ की चोट खा कर के बैठे हैं अब
संगमरमर के हम्माम में फँस गये


प्यार का यार आगाज़ तो था भला
पर कसकते से अंजाम में फँस गये


उसकी सूरत थी कुछ और सीरत थी कुछ
इक अजनबी के बस नाम में फँस गये


एक के मोल में दूसरा मुफ़्त था
अब लगा जैसे कम दाम में फँस गये


काम घर का न कोई भी निपटा सके
ऐसे दफ़्तर के इक काम में फँस गये


दर्शनों को गये जब अमरनाथ के
घर से चल कर पहलगाम में फँस गये


एक भगदड़ 'भरद्वाज' चारों तरफ
शांति के शब्द कोहराम में फँस गये


चंद्रभान भारद्वाज





Wednesday, August 3, 2011

गगन का क्या करें

जब परों पर बंदिशें हों तो गगन का क्या करें
हर कली गर्दिश में हो ऐसे चमन का क्या करें

ज़िंदगी भर तन का ढँकना हो नहीं पाया नसीब
मौत के दिन यार रेशम के कफ़न का क्या करें

बस्तियाँ तो जल रही हैं उठ रहा काला धुआँ
घुल रहा है विष हवाओं में हवन का क्या करें

जो दबी चिनगारियों को तो बना देती लपट
पर बुझा देती दियों को उस पवन का क्या करें

तान कर सीना खड़ा है सामने मुजरिम स्वयं
हो नहीं तामील कागज के समन का क्या करें

हाथ में पत्थर लिए इस ओर भी उस ओर भी
खून से माथा सना चोटिल अमन का क्या करें

फ़र्क़ 'भारद्वाज' कथनी और करनी में बहुत
जो कभी पूरा न हो झूठे वचन का क्या करें

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, July 17, 2011

मान बैठे हैं


खरीदी हर कलम मसि और कागज मान बैठे हैं
खड़े जो कठघरे में खुद को ही जज मान बैठे हैं

चमक जाते जो जुगनू की तरह जब तब अँधेरे में
स्वयं को अब क्षितिज पर उगता सूरज मान बैठे हैं

उन्हीं हाथों में अक्सर सौंप बैठे क्षीरसागर को
जो कौओं को भी अब हंसों का वंशज मान बैठे हैं

किसी कुर्सी के आगे टेक आते हैं कभी मत्था
किसी कुर्सी के फेरों को ही वो हज मान बैठे हैं

धँसे हैं पाँव से लेकर गले तक पूरे कीचड़ में
मगर कीचड़ में खुद को खिलता पंकज मान बैठे हैं

किसी की चाल चलते हैं किसी से मात देते हैं 
वो मोहरे साधने में खुद को दिग्गज मान बैठे हैं

लगाते आ रहे हैं सिर्फ डुबकी गंदे नाले में 
उसे ही आज 'भारद्वाज' सतलज मान बैठे हैं

चंद्रभान भारद्वाज

Monday, June 6, 2011

बना दिया

हालात ने तकदीर का मारा बना दिया 
पर शायरी ने आँख का तारा बना दिया 

कुछ चाहतों ने तो उमर को पर लगा दिए 
कुछ हसरतों ने एक बनजारा बना दिया 

जलते दिये अक्सर हवाओं ने बुझा दिए
चिनगारियों को यार अंगारा बना दिया 

जब तक नदी बनकर रहा मीठा बना रहा 
सागर बना तो पानी भी खारा बना दिया 


मालूम है उसको किसे किस रूप में रखे 
हीरा कोई  शीशा कोई पारा बना दिया

यह ज़िन्दगी क्या क्या बनाएगी अभी हमें 
अच्छा भला इंसान बेचारा बना दिया 

कुछ देर पहले तक जो 'भारद्वाज' आम था 
उसकी निगाह ने उसे न्यारा बना दिया 


चंद्रभान भारद्वाज 

Sunday, May 22, 2011

जब कहीं दिलबर नहीं होता

इक ज़िन्दगी में जब कहीं दिलबर नहीं होता 
होते दरो-दीवार तो पर घर नहीं होता 

 जिसकी नसों में आग का दरिया न बहता हो 
काबिल भले हो वह मगर शायर नहीं होता 

 लहरें न  उठतीं हों नहीं तूफ़ान ही आते
सूखा हुआ तालाब इक  सागर नहीं होता

 जो नब्ज पहचाने न समझे धड़कनें दिल की 
होता है सौदागर वो चारागर नहीं होता 

  उमड़ीं घटायें जब कभी बिन प्यार के बरसीं 
तन भीग जाता है मगर मन  तर नहीं होता 

 यादों की खुशबू से अगर दालान भर जाते
गुलज़ार सपनों का महल खँडहर नहीं होता 

 यदि प्यार के बीजों में अंकुर फूटते पहले 
तो खेत 'भारद्वाज' का बंजर नहीं होता   

 चंद्रभान भारद्वाज 

Wednesday, May 18, 2011

दुनिया है थोथे रिश्तों की

भेंट लिफाफों गुलदस्तों की 
दुनिया है थोथे रिश्तों की 

तोलें सिर्फ तराजू लेकर 
यारी भी पुश्तों पुश्तों की 

सत्ता चलती है बस्ती में 
चोर उचक्कों अलमस्तों की 

भोग रहा कन्धों पर पीड़ा 
बचपन बोझीले बस्तों की 

लूटा ऐ टी ऍम शहर में 
खोली पोल पुलिस गश्तों की 

बरदी  बत्ती बेबस लगतीं 
बदहालत है चौरस्तों की 

'भारद्वाज'  हुआ है दुबला 
चिंता में मासिक किश्तों की 

चंद्रभान भरद्वाज



Monday, April 18, 2011

अच्छा लगा

मस्तियों शैतानियों का दौर ही अच्छा लगा 
ज़िन्दगी में आप थे तो और ही अच्छा लगा 

आज लगते हैं हमें रसहीन छप्पन भोग भी 
आप के हाथों का सूखा कौर ही अच्छा लगा 

अब ख़ुशी देता नहीं सिर पर मुकुट रतनों जड़ा
आप से पहना खजूरी मौर ही अच्छा लगा 

राह में चलते समय पद चिन्ह देखे आपके 
तो हमें सुनसान सा वह ठौर ही अच्छा लगा 

आप बिन भाती नहीं फलती हुई अमराइयाँ
आप थे तो ठूँठ इक बिन बौर ही अच्छा लगा 

जब कभी तनहाइयों में याद आती आपकी
तब पलक पर आँसुओं का दौर ही अच्छा लगा 

यार 'भारद्वाज' अब  न्यूयार्क पेरिस कुछ नहीं
आप के सँग तो हमें इंदौर ही अच्छा लगा

चंद्रभान भारद्वाज



Friday, March 18, 2011

वो राख में सुलगती इक आग ढूँढ़ते हैं

पानी में दूध जैसे ही झाग ढूँढ़ते हैं
वो राख में सुलगती इक आग ढूँढ़ते हैं

फूलों की क्यारियाँ तो रख़ दीं उजाड़ कर सब
काँटों की झाड़ियों में वो पराग ढूँढ़ते हैं 

खेलों में खोया बचपन  रंगरेलियों में यौवन  
अब आखिरी क्षणों में वैराग ढूँढ़ते हैं

आदी हैं हाथ जिसके बन्दूक बम छुरों के
पत्थर के उस ह्रदय में अनुराग ढूँढ़ते हैं 

उम्मीद क्या करें अब इंसानियत की उनसे  
जो ह़र लहू के कतरे में फाग ढूँढ़ते हैं

रक्खे थे  जिंदगी भर माँ-बाप आश्रमों में 
करने को श्राद्ध उनका अब काग ढूँढ़ते हैं

पूरी रँगी हुई है कालिख से खुद की चादर
औरों की साफ़ चादर में दाग ढूँढ़ते हैं

पाला हुआ ह्रदय में भ्रम और संशयों को
अब सिर्फ आस्तीनों में नाग ढूँढ़ते हैं

ले नाम रोशनी का करता रहा छलावा
जिसने ये घर जलाया वो चिराग ढूँढ़ते हैं

मुश्किल हुआ है जीना और आबरू बचाना
पग पग पे अपना आँचल और पाग ढूँढ़ते हैं

हैं छंद गीत ग़ज़लों से 'भारद्वाज' रीते
वे गद्य की कड़ी में ही राग ढूँढ़ते  हैं

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, February 6, 2011

कोई नहीं दिखता

बबूलों के वनों में गुलमोहर कोई नहीं दिखता
डगर में छाँह दे ऐसा शजर कोई नहीं दिखता

भटकती ही रही है ज़िन्दगी इस दर से उस दर तक
जिसे चाहत रही अपनी वो दर कोई नहीं दिखता

चले थे सोच कर शायद बनेगा कारवाँ आगे
खड़े हैं बस अकेले हम बशर  कोई नहीं दिखता

रहा आवाज़ का धोखा कि धोखा है निगाहों का
जिधर आवाज़ आती है उधर कोई नहीं दिखता

दिया बनकर जली है उम्र सारी इक प्रतीक्षा में
चुकी बाती बुझा दीया मगर कोई नहीं दिखता

कहीं थे राह में रोड़े कहीं थी  पाँव में बेडी
मगर अपने इरादों पर असर कोई नहीं दिखता

यहाँ कुछ लोग 'भारद्वाज' लिखने में लगे गज़लें
गज़लगोई का पर उनमें हुनर कोई नहीं दिखता

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, February 1, 2011

कौन देखता है

टूटे हुए मचानों को कौन देखता है
उजड़े पड़े मकानों को कौन देखता है

भर तो दिए  समय ने पर दर्द है अभी तक
घावों के उन निशानों को कौन देखता है

बारात जा चुकी है और उठ चुकी है डोली
अब सूने शामियानों को कौन देखता है

महफ़िल में सब निगाहें बस मंच पर टिकी हैं
नीचे के पायदानों को कौन देखता है

आते रहें उजाले मिलती रहे हवा भी
ऐसे उजालदानों को कौन देखता है

बनने को खीर पहले जो आग पर चढ़े थे
उन चावलों मखानों को कौन देखता है

गा गा के जिनको झेलीं थीं लाठियाँ और गोली
अब उन अमर तरानों को कौन देखता है

सब देखते दरीचे दालान और गुम्बद
पर नीव की चटानों को कौन देखता है

बलिदान हो गए हैं जो सरहदों की खातिर
उन वीरों उन जवानों को कौन देखता है

कन्धों से दूसरों के बस साधते निशाना
अब तीर या कमानों को कौन देखता है

पानी रुका है ऊपर नीचे है रेत केवल
नदियों के उन मुहानों को कौन देखता है

तुमको दिखाना होगा खुद वर्तमान अपना
गुज़रे हुए ज़मानों को कौन देखता है

डाली हुई सियासत की 'भारद्वाज' दिल में
नफ़रत की अब गठानों को कौन देखता है

चंद्रभान भारद्वाज

Saturday, January 8, 2011

बहुत होता है

थोड़ा सम्मान बहुत होता है
मान का पान बहुत होता है

मृत्यु के बाद भले हो मिट्टी
देह का दान बहुत होता है

भेंट का मोल न आँका जाता
मुट्ठी भर धान बहुत होता है

लोग पाते हैं सफलता थोड़ी
उसका अभिमान बहुत होता है

भेद दीवार परे लेने को
सिर्फ इक कान बहुत होता है

टालने कोई बड़ी दुर्घटना
थोड़ा सा ध्यान बहुत होता है

पढ़ के अखबार अदालत लेले
कोई संज्ञान बहुत होता है

प्यार का पाठ बहुत है मुश्किल 
इसमें इम्तिहान बहुत होता है

ज़िन्दगी मिलती है 'भारद्वाज' तनिक
साजो-सामान बहुत होता है

चंद्रभान भारद्वाज