Tuesday, December 30, 2014

             उजाले क्या अँधेरे क्या

अवध की मस्त शामें क्या वनारस के सवेरे क्या 
अगर हों बंद आँखें तो उजाले क्या अँधेरे क्या 

दहक कर आग नफ़रत की जला जाती है बस्ती को 
उसे हिन्दू के डेरे क्या उसे मुस्लिम के डेरे क्या 

उगा है सूर्य बनकर जो चमकता ही है धरती पर 
उसे फिर तम के घेरे  क्या घने कुहरे के घेरे क्या 

रखा विश्वास की गठरी में जब संतोष के धन को 
तो फिर जीवन सफर में चोर डाकू या लुटेरे क्या 

किसी रिश्ते में अपने को कभी बाँधा नहीं जिसने 
समझता कैसे होते प्यार की गलियों के फेरे क्या 

गड़रिया ज़िन्दगी की भेड़ लेकर घर से निकला है 
तो बस्ती के बसेरे क्या तो जंगल के बसेरे क्या 

टिकी है नींव 'भारद्वाज' जब कच्चे धरातल पर 
महल सपनों के ढहने हैं वो तेरे क्या वो मेरे क्या 

चंद्रभान भारद्वाज  

Saturday, December 6, 2014

                     घबरा ही जाता है 

अचानक नब्ज़ बढ़ती है पसीना आ ही जाता है
 हरिक दिल प्यार में पहले-पहल  घबरा  ही जाता है 

सिखाती है बहुत अम्मा पढ़ाती है बहुत दादी 
नज़र के फेर में दिल फँस के धोखा खा ही  जाता है 

भरोसा टूटने लगता कदम भी डगमगा जाते 
मगर दिल ठान लेता है  तो मंज़िल पा ही जाता है 

न अपना होश रहता है न दुनिया की खबर कोई 
उलझ कर प्यार में गहरा नशा सा छा ही  जाता है 

डगर जब आगे बढ़ती है तो गलियाँ छूटतीं पीछे 
बिछुड़ता है सगा कोई तो रोना आ ही जाता है 

कड़ी संदेह की जब बीच में विश्वास के फँसती 
दिलों के बीच थोड़ा फासला गहरा ही जाता है 

सही सोचा सही देखा सही बोला सही जाना 
सही को भी मगर कोई गलत ठहरा ही जाता है 

अगर खतरे में औरत देखती है आबरू अपनी 
तो उसका हौसला फिर मौत से टकरा ही जाता है 

ठहरता रूप का सौंदर्य 'भारद्वाज'पल दो पल 
अगर ढलना शुरू होता है तो ढलता ही जाता है 

चंद्रभान भारद्वाज 

Friday, November 28, 2014

रेत के ढेर को आधार समझ बैठे हैं 
स्वप्न के महलों को साकार समझ बैठे हैं 

एक पत्थर की तराशी हुई जो मूरत थी 
उसकी मुस्कान को हम प्यार समझ बैठे हैं

घर में मेहमान से बनकर जो कभी आए थे 
आज वो घर पे ही अधिकार समझ बैठे हैं 

ज़िंदगी जीना भी आसान कहाँ दुनिया में 
लोग ज़ज़्बात को व्यापार समझ बैठे हैं 

एक शैतान तो बैठा है मसीहा बनकर 
और मसीहा को खतावार समझ बैठे हैं 

जाल फैलाया हुआ जिसने महज धोखे का 
सब उसी शख्स को अवतार समझ बैठे हैं 

बंद हैं चारों तरफ काँच की दीवारों में 
हम इसे आज प्रगति द्वार समझ बैठे हैं 

मंच के आगे खरीदे हुए पुतले हैं सभी 
वो जिसे अपना जनाधार समझ बैठे हैं  

हम 'भरद्वाज' गुनाहों से उठाते परदा
पर सभी हमको गुनहगार समझ बैठे हैं 

चंद्रभान भारद्वाज 

Thursday, November 20, 2014

             लिये बैठे हैं 

आप किस दौर के हालात लिये बैठे हैं 
दिल में बस बीती हुई बात लिये बैठे हैं 

अब यहाँ कोख भी मिलती है किराया देकर 
लोग बाज़ार में ज़ज़्बात लिये बैठे हैं 

एक मिट्टी की ही गुल्लक में है पूँजी अपनी 
वे तो स्विस बैंक की औकात लिये बैठे हैं 

अब तो रिश्ते भी बदलते हैं यहाँ पल पल में 
आप बचपन की मुलाकात लिये बैठे हैं 

सभ्यता आज की मंगल की सतह तक पहुँची
हम हथेली पे कढ़ी भात लिये बैठे हैं 

आजकल प्यार शुरू होता है मोबाइल पर 
वे निगाहों से शुरूआत लिये बैठे हैं 

शब्द होठों पे लिये बैठे हैं मीठे मीठे 
मन में वे अपने मगर घात लिये बैठे हैं 

अब तो सावन में न भादों में बरसते बादल 
पर वे आषाढ़ की बरसात लिये बैठे हैं 

अपनी आदत न 'भरद्वाज' बदल पाये हम 
पहली यादों को ही दिन रात लिये बैठे हैं 

चंद्रभान भारद्वाज

Thursday, October 9, 2014

                      संभाले हुए हैं    

घर की गिरती हुई दीवार संभाले हुए हैं 
एक बिखरा हुआ परिवार संभाले हुए हैं 

सुबह रोजी का न शामों को पता रोटी का 
ऐसे हालात में घरवार संभाले हुए हैं 

फैसले की है न उम्मीद हमारे हक़ में 
कुर्सियाँ सारी गुनहगार संभाले हुए हैं 

बोझ जंजीर का पाँवों पे सँभाला हमने 
आप जंजीर की झंकार संभाले हुए हैं 

उसकी नीदों  में कहीं बिघ्न न आए कोई 
हम बुरे  वक़्त का हर वार संभाले हुए हैं 

जो कभी जंग के मैदान में उतरे ही नहीं 
आज बिन मूठ की तलवार संभाले हुए हैं 

जिनसे खुद तो न सँभल  पाया कभी घर अपना 
अब वही देश की सरकार संभाले हुए हैं 

अब सजा से भी उन्हें फर्क नहीं पड़ता है 
जेल में रह के भी दरबार संभाले हुए हैं 

जिसकी कथनी में असर है न असर करनी में 
लोग उस नाम को बेकार संभाले हुए हैं 

गाड़ियाँ उनकी चलाते  तो हैं रोबोट यहाँ 
वो रमोटों से ही रफ़्तार संभाले हुए हैं 

उनको मैदान में आने की जरूरत ही नहीं 
मोर्चा उनके तरफदार संभाले हुए हैं 

उगते सूरज को छिपाया है जिन्होंने अबतक 
खुद उजालों का वो बाज़ार संभाले हुए हैं 

ज़िन्दगी अपनी 'भरद्वाज' न सँभली हमसे 
उसकी यादों के वरक़ यार संभाले हुए हैं 

चंद्रभान भारद्वाज 

Tuesday, October 7, 2014

                     जिंदगी प्यासी रही 

देह भी प्यासी रही है रूह भी प्यासी रही 
प्यार की दो बूँद बिन यह ज़िन्दगी प्यासी रही 

माँग में सिंदूर है पर आँख में काजल नहीं 
गोद खुशियों से भरी पर हर ख़ुशी प्यासी रही 

प्यास लेकर जी रहा था प्यास लेकर मर गया 
आदमी का दिन भी प्यासा रात भी प्यासी रही 

तन का वैभव धन से है पर मन का वैभव प्रेम है 
तन का सागर है भरा मन गागरी प्यासी रही 

हर तरफ छाई बहारों का बताओ क्या करें 
कामना के बाग की जब हर कली प्यासी रही 

प्यास दुनिया की बुझाती  आ रही युग से मगर 
गंदगी  ढोती हुई अब खुद  नदी प्यासी रही 

आज बस्ती में निगम का टेंकर आया नहीं 
हर घड़ा प्यासा रहा हर बालटी प्यासी रही 

त्रासदी ही त्रासदी थी बाढ़ की चारों तरफ 
शहर पानी से भरा पर हर गली प्यासी रही 

भाव के पीछे कभी शब्दों के पीछे भागती 
व्यग्र 'भारद्वाज' की यह लेखनी प्यासी रही 

चन्द्रभान भारद्वाज

 

Friday, September 26, 2014

                       मैं एक सागर हो गया

बन के पत्थर वो मिला तो मैं भी पत्थर हो गया
जब नदी बनकर मिला मैं एक सागर हो गया

है अजब संभावनाओं से भरी यह ज़िन्दगी
जो कभी सोचा नहीं था वो भी अक्सर हो गया

मेरे पैरों के तले की धरती उसने खोद दी
मेरा कद भी उसके कद के जब बराबर हो गया

पाँव में जब बेड़ियाँ थीं तब हमें धरती मिली
और जब बे-पर हुए हम अपना अम्बर हो गया

भाग्य माथे की लकीरों से नहीं बनता कभी
हाथ ने जैसा लिखा वैसा मुकद्दर हो गया

आँकती आई थी दुनिया अब तलक कमतर मुझे
वक़्त बदला तो मैं दुनिया से भी बढ़कर हो गया

एक अरसे से छिपा रक्खा था दिल के दर्द को
आँख की कोरें हुईं गीली उजागर हो गया

रोज ही करवट बदलता जा रहा है वक़्त अब
पिज्जा अपनी खीर पूड़ी से भी रुचिकर हो गया

नाम मेरा उसने जब अपनी कलाई पर लिखा
दिव्य 'भारद्वाज' का हर एक अक्षर हो गया

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, September 23, 2014

             हर किरदार की अपनी जगह
यार की अपनी जगह है प्यार की अपनी जगह
ज़िन्दगी में तय है हर किरदार की अपनी जगह

ज़िन्दगी खिलते गुलाबों की कँटीली डाल है
फूल की अपनी जगह है खार की अपनी जगह

आप हैं और सामने है वक़्त की बहती नदी
पार की अपनी जगह है धार की अपनी जगह

कुछ सुलग कर बुझ गए हैं कुछ अभी सुलगे हुए
राख की अपनी जगह अंगार की अपनी जगह

अपनी लघुता आपकी  गुरुता के  आगे कम नहीं
है सुई अपनी जगह तलवार की अपनी जगह

सींचने पड़ते हैं पौधों की तरह रिश्ते यहाँ
मान की अपनी जगह मनुहार की अपनी जगह

बाँटने जब भी उजाला आई सूरज की किरण
हर गली में ही मिली अँधियार की अपनी जगह

चूड़ियाँ इक शौक भी है चूड़ियाँ इक रस्म भी
लोक रस्मों में बनी मनिहार की अपनी जगह

बल प्रदर्शन जाम धरनों के भरे माहौल में
भीड़ की अपनी है थानेदार की अपनी जगह

नेट हो स्मार्ट मोबाइल या टी वी सेट हो
चैनलों की भीड़ में अखबार की अपनी जगह

जो प्रतीक्षारत रहा है उम्र भर प्रिय के लिए
मन में 'भारद्वाज' है उस द्वार की अपनी जगह

चंद्रभान भारद्वाज

Thursday, September 11, 2014



                    ग़ज़ल : नहीं मिलते 


उमर की डाल पर खुशियों के मीठे फल नहीं मिलते
अगर इस ज़िंदगी में प्यार के दो पल नहीं मिलते

स्वयं के शव को कंधों पर उमर भर ढोना पड़ता है
समय के यक्ष प्रश्नों के सहज ही हल नहीं मिलते 

जड़ों को खाद पानी से भले ही सींच ले कोई
मगर मौसम के मारे पेड़ को डंठल नहीं मिलते

दिये को तेल बाती के ही दम पर जलना पड़ता है
हवाओं की सलामी से उसे संबल नहीं मिलते

लगा कर कान हर अवसर की दस्तक सुननी पड़ती है 
जो अवसर द्वार से लौटे वो वापिस कल नहीं मिलते

जिन्हें आदत है अपनी प्यास अधरों पे सजाने की
उन्हें बरसात के मौसम में भी बादल नहीं मिलते

उड़ानें छोड़ कर अपनी जो पिंजड़ों के हुए आदी
कभी ऐसे परिंदों को खुले जंगल नहीं मिलते

धरा से तोड़ कर रिश्ता हवा में उड़ रहे हैं जो
उतरते वक़्त उन पाँवों को फिर स्थल नहीं मिलते

पुरानी तोड़ कर लीकें बनाती है नई राहें 
सफलता को कहीं भी रास्ते समतल नहीं मिलते

प्रणय इतिहास 'भारद्वाज' पूरा ही बदल जाता
मेरे नयनों से यदि उसके नयन चंचल नहीं मिलते 

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, September 2, 2014

 राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई 

राह दिखती है न दिखता है सहारा कोई
 जाये तो जाये कहाँ वक़्त का मारा कोई

उम्र धुँधुआती रही गीली सी लकड़ी की तरह
पर न चिनगारी बनी है न अँगारा कोई

तैरती रहती तो लग जाती किनारे पे कहीं
डूबती नाव को मिलता न किनारा कोई

प्यास अधरों की बुझाते तो बुझाते कैसे
या तो था रेत कि तालाब था खारा कोई

जिन पतंगों की कटी डोर फँसी काँटों में
उनको आकाश न मिलता है दुबारा कोई

छोड़ कुछ देर चमक खोया अँधेरों  में कहीं
जब भी आकाश से टूटा है सितारा कोई

शांत माहौल में होती है अचानक हलचल
द्वार को करती है जब खिड़की इशारा कोई

हमने खुशियों का खजाना ही लुटाया था यहाँ
पर हमें दे के गया गम का पिटारा कोई

जब न पूरा है सफर और न थका है वो अभी
क्यों तलाशेगा 'भरद्वाज' किनारा कोई

Saturday, August 16, 2014

                 तुझ से न शिकवा कोई

कोई रुतबा है न जलवा है न जज्बा कोई 
ज़िन्दगी फिर भी हमें तुझ से न शिक़वा कोई 

आस अपनी तो बनी बैठी है दुल्हन कब से 
पर न पंडित है न दूल्हा है न मड़वा कोई 

ज़िन्दगी यों तो सुहागिन है सदा से अपनी 
पर वो लगती है अभी जैसे हो विधवा कोई 

अपने बच्चों को सुला देता है कोई भूखा 
पर खिलाता है यहाँ कुत्तों को हलवा कोई 

स्वप्न देखा था कि आएँगे कभी अच्छे दिन
पर न रोटी है न कपड़ा  है न दड़वा कोई 

रास घोड़ों की थमा दी है समय ने उनको 
रथ चलाने का नहीं जिनको तजुरबा कोई 

आँख अख़बार की उन तक ही पहुंचतीं अब तो 
जिनकी पदवी है कि ओहदा है कि रुतबा कोई 

लगता कुर्सी के लिए ये हैं जरूरी शर्तें 
कोई हत्या हो दुराचार हो कि बलवा कोई 

तू 'भरद्वाज' कदम अपने सँभल कर रखना 
तेरी ग़ज़लों पे नहीं जारी हो फ़तवा कोई

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, August 10, 2014

द्वेष इंसान को हैवान बना देता है

द्वेष इंसान को हैवान बना देता है
प्रेम शैतान को इंसान बना देता है

जन्म के वक़्त तो इंसान ही होते हैं सभी
धर्म हिंदू कि मुसलमान बना देता है

यों तो बाज़ार में सिंदूर की क्या है कीमत
पर वो पत्थर को भी भगवान बना देता है

जब भी कद पुत्र का छूता है पिता के कंधे
उसके कंधों  को भी बलवान बना देता है

स्वप्न जब आँखों में पलता  है शिखर छूने का
पथ की चट्टान को सोपान बना देता है

घेर लेता है कहीं घोर अँधेरा जब भी
मन की आँखों को वो द्युतिमान बना देता है

मीठी यादों का सदा साथ चबेना रखना
लम्बी राहों को वो आसान बना देता है

माँ की गोदी ही नहीं प्यार भरा चेहरा भी
बेटे के आँसू को मुस्कान बना देता है

है 'भरद्वाज' अगर कोई असरदार ग़ज़ल
उसका इक शेर ही पहचान बना देता है

चंद्रभान भारद्वाज


Friday, August 1, 2014

दर्द लिपटा है ख़यालों में ये कैसा मुझ से 

दर्द लिपटा है ख़यालों में ये कैसा मुझ से
छोड़ कर देख लिया प्यार न छूटा मुझ से 

फेस बुक पर जो नया दोस्त बना था मेरा 
कर गया मेरी शराफत में वो धोखा मुझ से 

वो है इक साँप सदा ज़हर उगलता मुझ पर 
चाहता है वो मगर दूध बताशा मुझ से 

जिसने इक रोज बुझाए थे दिये सब मेरे 
झिलमिलाता है उसी घर का हर कोना मुझ से 

पंख हैं पर  न उड़ानों की है हिम्मत बाकी 
साहिबो उठ गया क्या मेरा भरोसा मुझ से 

मुझ से वो खैर खबर पूछ गया दुनिया की 
मेरी तबीयत का मगर हाल न पूछा मुझ से 

जब से आँखों में उजालों ने कदम रक्खा है 
अपने चेहरे को छिपाता है अँधेरा मुझ से 

जान पहचान नहीं और न रिश्ता कोई 
नाम जुड़ता है मगर उसका हमेशा मुझ से 

जब भी साधा है निशाना मैंने सच की खातिर 
वक़्त ने माँग लिया मेरा अँगूठा मुझ से 

चंद्रभान भारद्वाज


इक दुआ राह से पर्वत को हटा देती है

इक दुआ राह से पर्वत को हटा देती है
आह की आग  ज़माने को जला देती है

शब्द करते हैं असर जब भी किसी वाणी के
एक आवाज ही मुर्दों को  जगा देती है

चाह जब बढ़ के पहुँचती है मिलन की हद तक
इक नदी खुद को ही सागर में मिला देती है

भूल अपनी पे सजा मिलती है औरों को अगर
वो हमें अपनी निगाहों में गिरा देती है

घर के हालात छिपाते तो छिपाते कैसे
हाल आँगन की ही दीवार बता देती है

प्यार तो सींचता रहता है जड़ें पौधों की
पर घृणा डालों  पे विष बेल चढ़ा देती है 

राख में ढूँढती रहती है सदा चिनगारी
हरिक चिनगारी को ये दुनिया हवा देती है

आपने किस से लिया और दिया है किस को
ज़िंदगी आपके खाते में लिखा देती है

कामयाबी को मदद करती  है नाकामी भी
एक नाकामी कई राह दिखा देती है

नींद आती है मगर स्वप्न नहीं आते हैं
एक इंसान को जब मौत सुला देती है

तख़्त विश्वास का मजबूत बना हो चाहे
कील संदेह की पायों को हिला देती है

नेट पर चैट भी मैसेज भी करती  रहती
पर न वो फोन न वो अपना पता देती है

जिस पे चढ़ती है नशा बन के 'भरद्वाज' ग़ज़ल
उसको 'ग़ालिब' या उसे 'मीर' बना देती है

चंद्रभान भारद्वाज


 

Wednesday, July 2, 2014

      ये कैसा हो गया है 

न जाने हाल दिल का ये कैसा हो गया है 
निगाहों में धुँआ ही धुँआ सा हो गया है 

उठा सिर दंभ का दोस्तों के बीच जब भी 
सड़क पर दोस्ती का तमाशा हो गया है 

गये सब सूख रिश्तों के शाखें फूल पत्ते 
जड़ों से उनका रिश्ता कटा सा हो गया है 

छलों की मकड़ियों ने बिछाये जाल ऐसे 
भला सा आदमी अब छला सा हो गया है 

जुड़ा था एक क्लिक में कभी जो फेस बुक पर 
अचानक ज़िंदगी से जुदा सा हो गया है 

ग्रहण सा लग गया है उमर की चाँदनी को 
गुलाबी गाल पर जब मुँहासा हो गया है 

अहम ने तो किया आदमी को सिर्फ कड़वा 
गरज में पर वही इक बताशा हो गया है 

भरोसा उठ गया है भरोसे से भी अब तो 
सगा ही अब लहू का पियासा हो गया है 

मिला है प्यार में जब भी 'भारद्वाज' धोखा 
खिला सा एक चेहरा बुझा सा हो गया है  

चंद्रभान भारद्वाज 

Monday, May 26, 2014

ज़िंदगी इक शास्त्र भी है ज़िंदगी विग्यान भी 

राग है वैराग्य भी है भक्ति है तो ग्यान भी 
ज़िंदगी इक शास्त्र भी है ज़िंदगी विग्यान भी 

तन रही ब्रह्माण्ड के दोनो ध्रुवों तक ज़िंदगी 
है रसातल तक पतन आकाश तक उत्थान भी 

कर्म के फल से बँधी है ज़िंदगी की हर क्रिया 
फल कभी अभिशाप है तो फल कभी वरदान भी 

घूमती रहती सतत अपनी धुरी पर ज़िंदगी 
इक तरफ होती उदय तो इक तरफ अवसान भी  

नाम कोई एक कोई एक परिभाषा नहीं 
ज़िंदगी इक देवता भी ज़िंदगी शैतान भी 

जी रही है आज कितने रूप कितने रंग में 
पी रही अमृत अगर तो कर रही विषपान भी

ज़िंदगी का सत्‍य उद्घाटित करें कैसे बता 
जश्न लगती है कभी लगती कभी म्रियमाण भी 

है कहीं तो इक इकाई है विभाजित भी कहीं 
है घ्रणा के कटु वचन तो प्यार के मधु गान भी 

जी रहे कुछ लोग रोकर कुछ मगर हँसकर जिये
लोग 'भारद्वाज' हैं नादान भी विद्वान भी 

चंद्रभान भारद्वाज   


Monday, May 12, 2014

                      मरहम  बना देना 

किसी उजड़े चमन का खुशनुमा मौसम बना देना 
मुझे टूटे दिलों के जख्म का मरहम बना देना 

खडा है कठघरे मेँ सच स्वयं इंसाफ की खातिर 
भले ही एक दिन का  हो मुझे मुकदम बना देना 

अँधेरे की हरिक हैवानियत को जानता हूँ मैं 
उमीदों के उजाले का मुझे परचम बना देना 

रहे इक गर्व का अह्सास अपने आप पर उसको 
उसे ज्यादा बना देना मुझे कुछ कम बना देना 

मिलें जब भी मरुस्थल में तड़पते होँठ पानी को  
बनूँ मैं या तो गंगाजल या फ़िर ज़मज़म  बना देना 

 पलक पर आँसुओं के दर्द का अहसास जाना है 
मुझे दामन बनाना या मुझे हमदम बना देना 

उलझती है अगर पाजेब तो लय टूट जाती  है 
मुझे उलझी हुई पाजेब की छमछम बना देना 

प्रलय के बाद दोबारा बनानी हो अगर दुनिया 
उसे हव्वा बना देना मुझे आदम बना देना 

सहारा बन सकें गिरते हुए इक आदमी क़ी  जो
भुजाएँ यार 'भारद्वाज' की सक्षम बना देना 

चंद्रभान  भारद्वाज  



Tuesday, May 6, 2014

       अजूबा हो गया है 

निगाहों के असर से अजूबा हो गया है 
गुनाहों का पुजारी मसीहा हो गया है 

सुनी जो उनके कदमों की आहट भी गली में 
अँधेरा तिलमिला कर सवेरा हो गया है 

ज़मी के पास आने लगा है आसमाँ खुद 
परों पर अपने जबसे भरोसा हो गया है 

जलाई ऐसी दिल में किसी ने प्यार की लौ
कि अंधी आँखों मे भी उजाला हो गया है 

गिरा है कोई घूँघट बिखेरी हैं कि जुल्फें 
हैं रातें चाँदनी पर अँधेरा हो गया है 

शगुन सी हो गई है झलक भी एक उनकी 
दिखी है जब भी सूरत मन चाहा हो गया है 

ज़ुड़ा है ज़िंदगी से कोई 'भारद्वाज' जब से 
विरागी ज़िंदगी में इक तमाशा हो गया है 

चंद्रभान भारद्वाज


Saturday, May 3, 2014

सहज प्यार की लौ जला कर तो देखो 

कहीं मूर्ति कोई बना कर तो देखो 
सहज प्यार की लौ जला कर तो देखो 

न कमतर लगेगा किसी साधना से 
कभी प्रेम के प्रण निभा कर तो देखो 

पिघलता है पत्थर स्वयं मोम जैसा 
प्रणय की अगन से तपा कर तो देखो 

बदन दो मगर एक होते हैं कैसे 
किसी मन के भीतर समा कर तो देखो 

नहीं रंग फीका पड़ेगा उमर भर 
हिना प्यार की बस रचा कर तो देखो 

धरा खुद ही चक्कर लगाने लगेगी 
हथेली पे सूरज उगा कर तो देखो 

लहर दौड़ती तन में मन में खुशी की  
किसी के कभी काम आकर तो देखो 

दिया जिसने जितना मिला उससे दुगुना 
कहीं प्यार का धन लुटा कर तो देखो 

न आनंद की हद 'भरद्वाज' कोई 
कभी प्रेम पूजा बनाकर तो देखो  

चंद्रभान भारद्वाज 

Tuesday, April 29, 2014

          साथ रखना 

नज़र में दिशा और दशा साथ रखना 
सफर में नया हौसला साथ रखना  

कहाँ हाथ यह ज़िंदगी छोड़ देगी 
सदा इक मुकम्मिल पता साथ रखना 

चले संग जो एक परछाईं बनकर 
बना कोई ऐसा सखा साथ रखना 

बने फूल हर एक काँटा डगर का 
बुजुर्गों के दिल की दुआ साथ रखना 

सरसता भरेगी अकेली उमर में 
प्रणय में पगी इक कथा साथ रखना 

उजाला न देगा यहाँ और कोई 
स्वयं को ही दीया बना साथ रखना 

'भरद्वाज' पूँजी है यह दुर्दिनों की   
बँधी गाँठ में कुछ बफा साथ रखना 

चंद्रभान भारद्वाज 

Tuesday, April 22, 2014

               खुशी देखते हैं 

गुणीजन ग़मों में खुशी देखते हैं
मरण में नई ज़िन्दगी देखते हैं

कहानी कभी कोई घटती है ऐसी
पलों में ही पूरी सदी देखते हैं

पनपता है जब आस का बीज कोई
मरुस्थल में बहती नदी देखते हैं

अचानक जनमता है वैराग्य मन में
चिता जब भी कोई जली देखते हैं

महावीर बनते कि वे बुद्ध बनते
जो वैश्या में भी इक सती देखते हैं

न मतलब हमें मंदिरों मस्जिदों से
हरिक मूर्ती मन में बसी देखते हैं

न होगा 'भरद्वाज' मन स्वच्छ उनका
जो औरों में बस गंदगी  देखते हैं

चंद्रभान  भारद्वाज 
                       मिले हैं 

हवाले मिले हैं घोटाले मिले हैं
नज़र बंद है मुँह पे ताले मिले हैं

खरीदे हुए हैं सभी ने स्वयं ही
जिन्हें हार श्रीफल दुशाले मिले हैं

बताते हैं वे खुद जुड़े हैं ज़मीं से
न पैरों में मिट्टी न छाले मिले हैं

लगे मस्तकों पे तो चन्दन के टीके
दुपट्टे मगर दाग वाले मिले हैं

चुनावों में देखी है तस्वीर ऐसी
कि मस्जिद से जाकर शिवाले मिले है

हवा रोशनी के लिए थी जो खिड़की
वहाँ सिर्फ मकड़ी के जाले  मिले हैं

'भरद्वाज' कल एक गंगोत्री थी
जहाँ गन्दगी के पनाले मिले हैं

चन्द्रभान भारद्वाज