Sunday, August 16, 2009
Monday, August 3, 2009
करवटों में कटी
प्यार की इक उमर करवटों में कटी;
चाहतों में कटी आहटों में कटी।
हो प्रतीक्षा की या हो विरह की घड़ी,
खिड़कियों में कटी चौखटों में कटी।
जिनके प्रियतम बसे दूर परदेश में,
उनकी विरहन उमर घूंघटों में कटी।
प्यार के तेल बिन जो जले ही नहीं,
उन दियों की उमर दीवटों में कटी।
प्यार के इक कुए से दिलासा लिए,
गागरों की उमर पनघटों में कटी।
प्यार के तंत्र में साधना रत उमर,
पागलों की तरह मरघटों में कटी।
प्यार में डूब कर जो न उबरे कभी,
वय 'भरद्वाज' उनकी लटों में कटी।
चंद्रभान भारद्वाज
मेरा अनुवाद तुम
मूल कविता हूँ मैं मेरा अनुवाद तुम;
मेरे लेखन की हो एक बुनियाद तुम।
मैं अमर शब्द हूँ तुम अमर काव्य हो,
हूँ परम ब्रह्म मैं हो अमर नाद तुम।
तुम हो काशी मेरी तुम हो काबा मेरा,
मन के मन्दिर में मस्जिद में आबाद तुम।
जिसमें आठों पहर ज्योति जलती सदा,
सिद्ध वह पीठ तुम सिद्ध वह पाद तुम।
बैठ कर जिसमें करता रहा ध्यान मैं
स्वच्छ परिवेश में शांत प्रासाद तुम।
रात दिन मैं ह्रदय में संजोता जिन्हें,
मेरे अभिनय के जैसे हो संवाद तुम।
बह रहे रक्त बन कर नसों में मेरी,
मन का उन्माद तुम मन का आल्हाद तुम।
मेरा दर्शन हो चिंतन हो सत्संग हो,
ऋषि 'भरद्वाज' मैं हो परीजाद तुम।
चंद्रभान भारद्वाज
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