(१) खिलखिलाती देहरी घर की
कदम छूते ही उसके खिलखिलाती देहरी घर की
मिला है जब से वह मन में सँभलती ही नहीं खुशियाँ
लगा जैसे मिली है कोई अनुपम देन ईश्वर की
जला दीपक सजल आँखें महकती फूलमालाएं
प्रतीक्षा में खड़े लगते हैं युग से अपने प्रियवर की
पड़ी इक दृष्टि जब उसकी हुए सब वक्र ग्रह सीधे
फली लगती है अपनी पुण्यताई अब उमर भर की
अचानक फैल जाती है लजाने की लहर मुख पर
झलक पाती है जब प्रिय की गली में खिड़की ऊपर की
भले हों शब्द सादे अर्थ पर गंभीर देते हैं
बदलती भंगिमाएं प्यार में हर शब्द अक्षर की
जिन्होंने सीप के व्यापार में ही उम्र सब खोई
समझ पाएंगे कीमत कैसे 'भारद्वाज' गौहर की
चंद्रभान भारद्वाज
(२) मिसरा तू
रहा है ऊला मिसरा तू रहा सानी भी मिसरा तू
मेरी ग़ज़लों के हर इक शेर में लगता है उतरा तू
बता कैसे कटेगी ज़िंदगी पल भर भी बिन तेरे
लहू बन कर नसों में बह रहा जब कतरा कतरा तू
उतरता ही नहीं है ध्यान से मासूम चेहरा अब
मिलन से हो गया है और ज्यादा निखरा निखरा तू
ग़ज़ल में या निकलता दोष या हो जाती बे-बहरी
लगा जब खोया खोया या लगा जब बिखरा बिखरा तू
दिलों के बीच अपने जब कोई सरहद नहीं खींची
न देता कोई पहरा मैं न देता कोई पहरा तू
नज़र के सामने रखकर तुझे जब सोचता हूँ मैं
तमन्नाओं की महफ़िल में लगा सपना सुनहरा तू
रहा है इसलिए खुशहाल 'भारद्वाज' अपना घर
रहा हूँ बन के गूँगा मैं रहा है बन के बहरा तू
चंद्रभान भारद्वाज
(३)रूप का निखार मुझे
कभी तो केश कभी रूप का निखार मुझे
बना गए हैं सभी सिर्फ इश्तिहार मुझे
उड़ा रहा है हवा में मुझे अहम् का नशा
कहीं जमीन पे मालिक मेरे उतार मुझे
लगा कि जैसे मेरी अस्मिता ही सुन्न हुई
जरा तू यार मेरे नाम से पुकार मुझे
हुआ था पार किनारों ने साथ छोड़ दिया
गए हैं अपने भी पीछे से धक्का मार मुझे
लुटा चुका हूँ यहाँ ज़िंदगी के स्वप्न सभी
मिली हैं साँसें भी गिनती की अब उधार मुझे
समझ न आये कि तुरपन करूँ कहाँ से शुरू
किया हुआ है ज़माने ने तार-तार मुझे
बना सकूँ जो 'भरद्वाज ' मैं स्वयं को दिया
डरा सकेगा न फिर पथ का अंधकार मुझे
चंद्रभान भारद्वाज
(४) दिन में भी जलाते दीया
रूप के रहते हुए घर में सजाते दीया
लोग अनजान हैं दिन में भी जलाते दीया
उनको राहों में उजालों की जरूरत क्या है
जो अँधेरों में स्वयं को ही बनाते दीया
उनके हाथों में कला है कि बला का जादू
छू लें मिटटी को तो पल भर में बनाते दीया
ज़िंदगी जिनकी अँधेरों में ही गुजरी पूरी
मौत पर उनकी मज़ारों पे जलाते दीया
पुत्र तो छोड़ गया उनको अनाथालय में
उसको मां-बाप मगर कुल का बताते दीया
खुद तो जीवन में दिया कोई जला पाए नहीं
किंतु औरोँ का जला रोज बुझाते दीया
खुद का आँचल भी 'भरद्वाज ' जला बैठे हैं
अपने आँचल को बचाते कि बचाते दीया
चंद्रभान भारद्वाज
बना गए हैं सभी सिर्फ इश्तिहार मुझे
उड़ा रहा है हवा में मुझे अहम् का नशा
कहीं जमीन पे मालिक मेरे उतार मुझे
लगा कि जैसे मेरी अस्मिता ही सुन्न हुई
जरा तू यार मेरे नाम से पुकार मुझे
हुआ था पार किनारों ने साथ छोड़ दिया
गए हैं अपने भी पीछे से धक्का मार मुझे
लुटा चुका हूँ यहाँ ज़िंदगी के स्वप्न सभी
मिली हैं साँसें भी गिनती की अब उधार मुझे
समझ न आये कि तुरपन करूँ कहाँ से शुरू
किया हुआ है ज़माने ने तार-तार मुझे
बना सकूँ जो 'भरद्वाज ' मैं स्वयं को दिया
डरा सकेगा न फिर पथ का अंधकार मुझे
चंद्रभान भारद्वाज
(४) दिन में भी जलाते दीया
रूप के रहते हुए घर में सजाते दीया
लोग अनजान हैं दिन में भी जलाते दीया
उनको राहों में उजालों की जरूरत क्या है
जो अँधेरों में स्वयं को ही बनाते दीया
उनके हाथों में कला है कि बला का जादू
छू लें मिटटी को तो पल भर में बनाते दीया
ज़िंदगी जिनकी अँधेरों में ही गुजरी पूरी
मौत पर उनकी मज़ारों पे जलाते दीया
पुत्र तो छोड़ गया उनको अनाथालय में
उसको मां-बाप मगर कुल का बताते दीया
खुद तो जीवन में दिया कोई जला पाए नहीं
किंतु औरोँ का जला रोज बुझाते दीया
खुद का आँचल भी 'भरद्वाज ' जला बैठे हैं
अपने आँचल को बचाते कि बचाते दीया
चंद्रभान भारद्वाज
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