Friday, January 11, 2013

फँसा आदमी

कभी दफ्तरों में कभी कठघरों में
फँसा आदमी कागजी अजगरों में 

तमन्ना रही आसमानों को छूएं 
मगर ठोक रक्खी हैं कीलें परों में 

कहाँ से उगेगी नई पौध कोई 
घुने बीज बोये हुए बंजरों में 

अगर मर गईं सारी संवेदनाएं 
रहा फर्क क्या वनचरों में नरों में 

खड़े प्रश्न ही प्रश्न हर ओर अपने 
न है कोई विश्वास अब उत्तरों में 

मचलती हुई ज़िन्दगी थम गई है 
नदी जैसे खोई कहीं गह्वरों में 

करे राख अन्याय के हर किले को 
अगन ऐसी पैदा करें अक्षरों में 

जिसे खोजना था स्वयं के ही अंदर 
उसे खोजता आदमी पत्थरों में 

हुए हैं 'भरद्वाज'हालात ऐसे 
रहें ज्यों किराए से अपने घरों में 

चंद्रभान भारद्वाज