Saturday, May 9, 2009

हंस सब उड़ गए

सूखती झील में काइयाँ रह गईं;
हंस सब उड़ गए मछलियाँ रह गईं।

रेत सी उम्र कण कण बिखरती रही,
हाथ खाली बँधी मुट्ठियाँ रह गईं।

सत्य को बिन सुने ही अदालत उठी,
आँसुओं से लिखी अर्जियाँ रह गईं।

अब खरीदे हुए मंच के सामने,
बस ख़रीदी हुई तालियाँ रह गईं।

यह सियासत पुलिंदा बनी झूठ का,
गाँठ में गालियाँ फ़ब्तियाँ रह गईं।

अब घटाओं में पानी रहा ही नहीं,
गड़गड़ाहट रही बिजलियाँ रह गईं।

रूह तो उड़ गई जल गई देह भी,
राख के ढेर में अस्थियाँ रह गईं।

प्यार के ख़त नदी में बहाए मगर,
याद की शेष कुछ सीपियाँ रह गईं।

काट कर दिल 'भरद्वाज' लिख दी ग़ज़ल,
पर कहीं ख़म कहीं खामियाँ रह गईं।

चंद्रभान भारद्वाज

Tuesday, May 5, 2009

एक सपना पलक पर सजा तो सही

ज़िन्दगी को कभी आजमा तो सही;
एक सपना पलक पर सजा तो सही।

पाँव ऊँचाइयों के शिखर छू सकें,
सोच को पंख अपने लगा तो सही।

बाजुओं में सिमट आएगा यह गगन,
कोई कोना पकड़ कर झुका तो सही।

मोम पत्थर गला कर बनाती है वो,
आग सीने में थोडी जला तो सही।

कर न परवाह ऊँची लहर की अभी,
रेत का इक घरोंदा बना तो सही।

आँधियाँ राह अपनी निकल जाएँगी,
डालियाँ सब अहम् की नवा तो सही।

एक दिन लोग ईसा बना देंगे ख़ुद,
पहले सूली पे ख़ुद को चढ़ा तो सही।

खोलता द्वार अवसर सभी के लिए,
बस किवाड़ें तनिक खटखटा तो सही।

प्यार को अर्घ्य देना 'भरद्वाज' पर,
आंसुओं की नदी में नहा तो सही।

चंद्रभान भारद्वाज