Tuesday, November 17, 2015

                       हो गया कैसे 

इक दोस्त भी दुश्मन अचानक हो गया कैसे 
विश्वास पर भी खून का शक हो गया कैसे 

लिक्खा हुआ था नाम सब का ही वसीयत में 
उस पर भला बस आपका हक़ हो गया कैसे 

कल तक भरा था सिर्फ कालिख और दागों  से 
पर आज वह दामन झकाझक हो गया कैसे 

चलता रहा था शांति  का पैगाम लेकर जो 
वह कारवां सहसा अराजक हो गया कैसे 

माता पिता को छोड़ आया है अनाथालय 
वो देव पूजा में विनायक हो गया कैसे 

अब बात विनती से नहीं बन्दूक से बनती
इहि  काल  मूल्यों का विनाशक हो गया कैसे 

यह विश्व ही सारा रहा परिवार कल अपना 
संकीर्ण अब मानस यकायक हो गया कैसे 

पहने हुए जो जुर्म की जंजीर पाँवों  में 
वह शख्स परिषद का विधायक हो गया कैसे 

दायित्व सौंपा था सुरक्षा के लिए जिसको 
वह हाथ 'भारद्वाज' घातक हो गया कैसे 

चंद्रभान भारद्वाज 



Tuesday, October 27, 2015

माहौल बेरुख़ी का बद इस कदर न देखा 

माहौल बेरुख़ी का बद इस कदर न देखा 
वह सामने खड़ा था लेकिन इधर न देखा 

पिघला हृदय न उसका गीली हुईं न आँखें 
इस आह में तो हमने कुछ भी असर न देखा 

उसने दिया तो हमने वो प्याला पी लिया था 
अमृत भरा था उसमें या था ज़हर न देखा 

जब आग में गली के सब घर ही जल रहे थे 
उसका तो घर बचाया पर अपना घर न देखा 

इक आदमी की हत्या होती रही सड़क पे 
पर भीड़ में किसी ने मुड़कर उधर न देखा 

आँगन के बीच जिसके दीवार हो न कोई 
कोई भी आज ऐसा पुश्तैनी घर न देखा 

कदमों के हौसलों ने जिसको छुआ नही हो 
पृथ्वी पे इतना ऊँचा कोई शिखर न देखा 

जिसकी जड़ों में गहरे तक दीमकें लगी हों 
पकता हुआ कोई फल उस पेड़ पर न देखा 

इंसान ऐसा कोई दुनिया में मिल न पाया 
खुद 'भारद्वाज' जिसने गम उम्र भर न देखा 

चंद्रभान भारद्वाज  

Tuesday, September 15, 2015

अपना तो ध्यान अपने पिया में लगा रहा
अपना तो ध्यान अपने पिया में लगा रहा
बस नेकी और राहे-वफ़ा में लगा रहा
भगवान उसको माफ़ करे दीन जानकर
जो हर कदम गुनाहो-दगा में लगा रहा
वह ज़िंदगी से मेरी गया तोड़ सिलसिला
पर मैं तो अपने वादे-वफ़ा में लगा रहा
जब नाव उसकी जा के फँसी बीच धार में
‘मैं उसके साथ साथ दुआ में लगा रहा’
मधुमेह रक्तचाप के झंझट से बच गया
मैं सुब्हो-शाम योग-क्रिया में लगा रहा
पद से तो कार्यमुक्त किया उम्र ने मुझे
पर मैं ग़ज़ल की रम्य विधा में लगा रहा
मुझ को न कोई ज्ञान है गीता क़ुरान का
मैं ज़िंदगी की रामकथा में लगा रहा
अँग्रेज़ी दवा ने किया कोई न जब असर
दादी की दी घरेलू दवा में लगा रहा
आँखों से ‘भरद्वाज’ मिली आँख तो मगर
मेरा वजूद शर्मो-हया में लगा रहा
चंद्रभान भारद्वाज
रसोई की महक उड़कर गली के पार तक पहुँची

रसोई की महक उड़कर गली के पार तक पहुँची
किसी के प्यार की खुशबू हमारे द्वार तक पहुँची

ज़माने की निगाहों से छिपा रक्खी थी अरसे से
न जाने राज़ की वो बात कब अख़बार तक पहुँची

सहा करती थीं घुट घुट कर लड़कियाँ छेड़खानी को
मगर अब बात सड़कों से निकल दरबार तक पहुँची

घृणा की एक चिनगारी दबी थी राख में अब तक
हवा की सह से लपटों के महा आकार तक पहुँची

चढ़े जब रेल में तो पाँव रखने को जगह माँगी
सफ़र में बात आगे सीट पर अधिकार तक पहुँची

वसूली की थी चौराहे पे जितनी भी सिपाही ने
नियत अनुपात में बँटकर वो थानेदार तक पहुँची

रुकी साँसें थमी जब धड़कनें भी दिल की सीने में
निकल कर बोतलों से तब दवा बीमार तक पहुँची

चुभाकर डंक शब्दों के उगलती है ज़हर मुँह से
सियासत आदमी से साँप के किरदार तक पहुँची

लगी थीं दीमकें जो अब तलक बस पेड़ की जड़ में
तने से चढ़  के 'भारद्वाज' अब हर डार तक पहुँची

चंद्रभान भारद्वाज  

Thursday, July 2, 2015




परीक्षा दी यहाँ किसी ने जब भी अपने प्यार की  

परीक्षा दी यहाँ किसी ने जब भी अपने प्यार की 
पड़ी है मार झेलनी कटार  या अँगार की  

खुली है आँख जब किया है सूर्य का मुक़ाबला  
ये दास्तान है नज़र पे रौशनी के वार की  

उतर गया है आव तो निगाह से उतर गया  
जहाँ में पूछ-ताछ सिर्फ़ होती आवदार की  

झरे थे फूल कल तलक तो उनके शब्द शब्द से  
उन्हीं के होंठ आज बात कर रहे हैं खार की  

ये दोष वक़्त का रहा कि दोष है हकीम का  
मरीज़ सन्निपात का दवाई दी बुखार की  

बँधी रहीं थी जब तलक तो खुद ही शक्ति बन गईं  
खुलीं तो खाक की हुईं वो मुट्ठियाँ हज़ार की  

चमन को जो उजाड़ने के खुद जवाबदार थे  
बता रहें हैं आजकल वो हर कमी बहार की  

समझ सकेंगे वो कहाँ है ज़िंदगी का अर्थ क्या  
जिए हैं उम्र भर स्वयं जो ज़िंदगी उधार की  

बताएँ 'भारद्वाज' क्या है हाल अब वियोग में  
सदी सी लग रही है इक घड़ी भी इंतज़ार की  

चंद्रभान भारद्वाज  

Wednesday, May 13, 2015

टूटे हुए रिश्तों का कोई हल न मिलेगा 

टूटे  हुए रिश्तों का कोई हल न मिलेगा
इक प्यार में भीगा हुआ आँचल न मिलेगा

बाँधा हुआ था स्नेह  की इक डोर से जिसने
बाँहों के उस घेरे का फिर संबल न मिलेगा

जो ज़िन्दगी की राह में पग पग पे पिया था
उन शरबती आँखों का गंगाजल न मिलेगा

मिलने  को तो मिल जाएंगे हमदर्द हजारों 
आँखों में उनकी  प्यार का काजल न मिलेगा

जिसने कभी अाहुति नहीं दी  प्रेम हवन में 
उसको प्रसादी का अमर श्रीफल  न मिलेगा

आया हुआ हो  द्वार पर अवसर न  गँवाना
लौटा अगर वो आज तो फिर कल न मिलेगा

परदेश में दौलत तो 'भारद्वाज' मिलेगी
पर छाँह दे वो नीम या पीपल न मिलेगा

चंद्रभान भारद्वाज


Saturday, May 2, 2015

                  पूजा घर बना दिया 

वीरान दिल को एक पूजा घर बना दिया 
इक बूँद को भी प्यार का सागर बना दिया 

ठोकर लगी थी राह में जिससे कभी हमें 
हमने उसी को मील का पत्थर बना दिया 

रातों को गहरी नींद की चिंता नहीं रही 
हाथों का तकिया देह का बिस्तर बना दिया 

जिसकी वजह से कल दिलों में फासले हुए 
आँगन की उस दीवार में इक दर बना दिया 

आकाश की ऊँचाइयों को छू सकें कभी 
सोये हुए हर हौसले को पर बना दिया 

थक हार कर जो रुक गए थे राह में कहीं 
इक प्रेरणा से जीत का अवसर बना दिया 

गुम हो गया था जो समय के गर्त में कहीं 
उस नाम का सोने का हर अक्षर बना दिया 

घर का पता कोई न कोई गाँव  का पता 
इस ज़िन्दगी ने हमको यायावर बना दिया 

तक़दीर के भी खेल 'भारद्वाज' हैं अजब 
नौकर को मालिक मालिक को नौकर बना दिया 

चंद्रभान भारद्वाज 

Wednesday, April 22, 2015

ग़ज़ल 

चेहरे पे कांति प्यार की छाई हुई तो है 
हर याद उसकी मन में सवाई हुई तो है 

हमको समय ने बाँध के रक्खा अलग अलग 
पर हमने प्रीति -रीति निभाई हुई तो है 

मजबूरियों ने पास तो आने नहीं दिया 
पर अपनी हर ग़ज़ल में वो आई हुई तो है 

ये बात अलग है कि वो भर ही नहीं सका 
ये जख्मे  दिल है इसकी दवाई हुई तो है 

चहरे पे मुस्कराहट हरदम बनी रही 
अपनी कभी कभी यों  लड़ाई हुई तो है 

आते ही उसके वज़्म में धुन भूल ही गए 
यों उसके पहले धुन ये बजाई  हुई तो है 

लगते भले हों देह से वो पास पास हैं  
उनके दिलों के बीच इक खाई हुई तो है 

क्या क्या प्रमाण देगा वो अपनी सफाई में 
हर ओर उसने आग लगाई हुई तो है 

वो नाम ले के अपना सुनाने चले ग़ज़ल 
जो 'भारद्वाज ' जी ने सुनाई हुई तो है 

चंद्रभान  भारद्वाज 

Friday, March 13, 2015

प्यार में यार की हर बात भली लगती है 

राह काँटों से भरी कुंजगली लगती है 
प्यार में यार की हर बात भली लगती है 

विष में डूबी हुई हीरे की कनी भी कोई 
होठ को छूते ही मिसरी की डली लगती है

छत से जो लटकी हुई डाल गले में फंदा
प्यार के खेल में शायद वो छली लगती है 

गाँव के ताल में था तैर रहा शव जिसका 
लाज की मारी हुई रामकली लगती है 

पुत्र की आस में जब जन्म दिया बेटी को
सास को अपनी बहू कर्मजली लगती है 

जब से बीमार के सिरहाने वो आकर बैठा 
द्वार तक आई हुई मौत टली लगती है 

थाम  कर हाथ अगर साथ 'भरद्वाज' रहे 
काजू बादाम सी हर मूँगफली लगती है 

चंद्रभान भारद्वाज 


Tuesday, February 17, 2015

एक बंधन से उबर जाना है
एक बंधन से उबर जाना है
द्वार दीवार में कर जाना है
फूल से निकली हुई ख़ुश्बू सा
अब हवाओं में बिखर जाना है
नाम को याद रखेंगी सदियाँ
आज हर दिल में उतर जाना है
राह ख़ुद बनती चली जायेगी
बढ़ते क़दमों को जिधर जाना है
जान अब अपनी हथेली पे रखी
‘आज हर हद से गुजर जाना है’
मृत्यु पर गर्व करेगा जीवन
प्यार में डूब के तर जाना है
डाल के सूखे हुए पत्ते को
क्या पता गिर के किधर जाना है
बाद में ताजमहल बनते हैं
पहले मिट्टी में उतर जाना है
आँसुओं को भी बनाता मोती
जिसने ग़ज़लों का हुनर जाना है
रैलियाँ उनकी निकल जाने पर
सिर्फ सन्नाटा पसर जाना है
चढ़ गया गहरा नशा नज़रों का
धीरे धीरे ही असर जाना है
साज सामान सँभालो अपना
अब ‘भरद्वाज’ को घर जाना है
चंद्रभान भारद्वाज                

            भीतर की कसक बाकी है 

भर गए घाव तो भीतर की कसक बाकी है 
फाँस जो मन में चुभी आज तलक बाकी है 

हमने ईमान से बस इतना कमाया अबतक 
सिर पे पगड़ी है निगाहों में चमक बाकी  है 

ज़िंदगी जल के भले राख का इक ढेर हुई 
राख के ढेर में  अब तक भी भभक बाकी है 

आस तो टूट रही छूट रहीं सांसें भी 
ज़िंदगी जीने की पर अब भी  ललक बाकी है 

उनको नज़रों से हुए दूर ज़माना गुजरा 
अपनी साँसों में मगर उनकी महक बाकी है 

दाल सब्ज़ी तो हुए आज बजट से बाहर 
पर गनीमत है कि रोटी पे नमक बाकी है 

गाँव तो अपना नए बाँध के कारण डूबा 
पर उसी नाम से बस कच्ची सड़क बाकी है 

नाम अपना भी बराबर का लिखा था पहले 
अब वसीयत में न हिस्सा है न हक़ बाकी है 

पाँव छूते  हैं 'भरद्वाज' वही  मंजिल को 
राह में जिनको न संभ्रम है न शक बाकी है 

चंद्रभान भारद्वाज 

Friday, January 30, 2015

             अहसान को भी भूल जाते हैं 

अहम में आदमी अहसान को भी भूल जाते हैं 
मिले जब लक्ष्मी भगवान को भी भूल जाते हैं 

घिरे रहते हैं जो चेहरे सदा गहरे तनावों से 
हँसी तो छोड़िये मुस्कान को भी भूल जाते हैं 

कराना पड़ता है अपने हुनर का रोज विज्ञापन 
नहीं तो आपके अवदान को भी भूल जाते हैं 

दिया भी कौन रखता है शहीदों की मजारों पर 
यहाँ अब लोग देवस्थान को भी भूल जाते हैं 

उजाड़ी जिसने कल बस्ती किये थे घर से बेघर सब 
समय निकला तो उस तूफ़ान को भी भूल जाते हैं 

समझ पाएंगे कैसे अर्थ मन की भावनाओं का 
जो अपनी देहरी दालान को भी भूल जाते हैं 

अँधेरा शक का गहराता है जब विश्वास के घर में 
तो मन के खिड़की रोशनदान को भी भूल जाते हैं 

नशा अभिमान का जिनके सिरों पर बोलता चढ़कर 
वो अपने मान को सम्मान को भी भूल जाते हैं 

उत्तर आती है मन की वादियों में जब परी कोई 
तो 'भारद्वाज' ऋषि फिर ध्यान को भी भूल जाते हैं 

चंद्रभान  भारद्वाज 


Monday, January 19, 2015

                     चलना छोड़ देंगे क्या              

बिछे हों राह में काँटे तो चलना छोड़ देंगे क्या 
किसी के डर से हम घर से निकलना छोड़ देंगे क्या 

भले बरसात हो आँधी  हो या तूफ़ान हो कोई 
उगे जो क्यारियों में फूल खिलना छोड़ देंगे क्या 

वे अपने मन के राजा हैं उन्हें हक़ है मचलने का 
बड़ों की डांट से बच्चे मचलना छोड़ देंगे क्या 

किसी की चेन झपटी है किसी का पर्स छीना है 
इसी भय से सुबह का हम टहलना छोड़ देंगे क्या 

दिखाई सख़्त देते हैं खड़े जो मोम के पुतले 
मगर वे आग के आगे पिघलना छोड़ देंगे क्या 

उन्हें कितना भी पूजो तुम पिलाओ दूध कितना भी 
मगर वे नाग फन से विष उगलना छोड़ देंगे क्या 

हवाओं की जगह अपनी दियों की है जगह अपनी 
हवा की धमकियों से दीप  जलना छोड़ देंगे क्या 

उन्हें मालूम है पत्थर मिलेंगे फल के आने पर 
वे आमों इमलियों के पेड़ फलना छोड़ देंगे क्या 

नियत निश दिन है 'भारद्वाज'उगना चाँद सूरज का 
 किसी दिन  राहु के भय से निकलना छोड़ देंगे क्या 

चंद्रभान भारद्वाज