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प्रेम की कहानी
इतनी सी बस रही है इक प्रेम की कहानी
मटके से पार करते उफनी नदी का पानी
आती है बन के बाधा हर प्रेम की डगर में
खोई हुई अँगूठी भूली हुई निशानी
इस प्रेम-यज्ञ में जो प्राणों को होम करती
होती है या दिवानी या होती है शिवानी
यह प्रेम सत्य भी है शिव भी है सुंदरम भी
इस भाव का नहीं है जीवन में कोई सानी
आता है प्यार का जब मौसम बहार बनकर
होती हैं अंकुरित खुद सूखी जड़ें पुरानी
इक डोर में बँधे पर रहते अलग अलग हैं
आपस का हाल पूछें बस और की जबानी
हैं 'भरद्वाज़' इसमें अक्षर तो बस अढ़ाई
पर प्रेम को न समझे विद्वान् और ज्ञानी
चंद्रभान भारद्वाज
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