यह मर्ज़ी भगवान की
उनकी चाहत
शीशमहल से आलीशान
मकान की
अपनी चाहत
शाम सवेरे बस
मुट्ठी भर धान
की
बिन मौसम
आँधी ओले तो
फसलें चौपट कर
गये
अनब्याही बैठी है
स्यानी बेटी
दीन किसान की
धरती पर
संकेत नहीं दिखते
हैं कोसों दूर
तक
कागज पर
अंकित हैं सारी
बातें पर उत्थान
की
एक सनातन
प्रश्न खड़ा है
फिर कुर्सी के
सामने
कब तक
भर पाएगी खाई
निर्धन और धनवान
की
उसने तो
सच के हाथों
प्राणों की डोरी
सौंप दी
'भारद्वाज' उड़े न
उड़े अब यह
मर्ज़ी भगवान की
(चंद्रभान भारद्वाज)
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