Wednesday, November 6, 2019

                      ग़ज़ल  

प्राणों का तप्त सूरज पहुँचा ढलान पर है
चाहों का पंछी लेकिन ऊँची उड़ान पर है

सोने का उनका पिंजड़ा तिनकों का नीड़ अपना
अस्तित्व अपना हर पल अब इम्तिहान पर है 

पैदा जहाँ हुआ था पाला गया जहाँ था
महलों से गर्व ज्यादा कच्चे मकान पर है 

जो चोटियों पे चढ़कर अब आसमान छूते 
उनकी निगाह अब भी मेरे मचान पर है 

काटी उन्होंने सबसे पहले ज़बान मेरी 
अपराध सिद्ध करना मुझ बेज़बान पर है 

अब तक भी आँख मछली की बेध वे न पाए 
यों तीर उनका अब तक रक्खा कमान पर है 

पत्थर को वक़्त ने क्या हीरा बना दिया है 
यह भारद्वाज सब कुछ विधि के विधान पर है 

चंद्रभान भारद्वाज

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