ग़ज़ल
प्राणों का तप्त सूरज पहुँचा ढलान पर है
चाहों का पंछी लेकिन ऊँची उड़ान पर है
सोने का उनका पिंजड़ा तिनकों का नीड़ अपना
अस्तित्व अपना हर पल अब इम्तिहान पर है
पैदा जहाँ हुआ था पाला गया जहाँ था
महलों से गर्व ज्यादा कच्चे मकान पर है
जो चोटियों पे चढ़कर अब आसमान छूते
उनकी निगाह अब भी मेरे मचान पर है
काटी उन्होंने सबसे पहले ज़बान मेरी
अपराध सिद्ध करना मुझ बेज़बान पर है
अब तक भी आँख मछली की बेध वे न पाए
यों तीर उनका अब तक रक्खा कमान पर है
पत्थर को वक़्त ने क्या हीरा बना दिया है
यह भारद्वाज सब कुछ विधि के विधान पर है
चंद्रभान भारद्वाज
सोने का उनका पिंजड़ा तिनकों का नीड़ अपना
अस्तित्व अपना हर पल अब इम्तिहान पर है महलों से गर्व ज्यादा कच्चे मकान पर है
काटी उन्होंने सबसे पहले ज़बान मेरी
अब तक भी आँख मछली की बेध वे न पाए
पत्थर को वक़्त ने क्या हीरा बना दिया है
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