Tuesday, February 17, 2015

एक बंधन से उबर जाना है
एक बंधन से उबर जाना है
द्वार दीवार में कर जाना है
फूल से निकली हुई ख़ुश्बू सा
अब हवाओं में बिखर जाना है
नाम को याद रखेंगी सदियाँ
आज हर दिल में उतर जाना है
राह ख़ुद बनती चली जायेगी
बढ़ते क़दमों को जिधर जाना है
जान अब अपनी हथेली पे रखी
‘आज हर हद से गुजर जाना है’
मृत्यु पर गर्व करेगा जीवन
प्यार में डूब के तर जाना है
डाल के सूखे हुए पत्ते को
क्या पता गिर के किधर जाना है
बाद में ताजमहल बनते हैं
पहले मिट्टी में उतर जाना है
आँसुओं को भी बनाता मोती
जिसने ग़ज़लों का हुनर जाना है
रैलियाँ उनकी निकल जाने पर
सिर्फ सन्नाटा पसर जाना है
चढ़ गया गहरा नशा नज़रों का
धीरे धीरे ही असर जाना है
साज सामान सँभालो अपना
अब ‘भरद्वाज’ को घर जाना है
चंद्रभान भारद्वाज                

            भीतर की कसक बाकी है 

भर गए घाव तो भीतर की कसक बाकी है 
फाँस जो मन में चुभी आज तलक बाकी है 

हमने ईमान से बस इतना कमाया अबतक 
सिर पे पगड़ी है निगाहों में चमक बाकी  है 

ज़िंदगी जल के भले राख का इक ढेर हुई 
राख के ढेर में  अब तक भी भभक बाकी है 

आस तो टूट रही छूट रहीं सांसें भी 
ज़िंदगी जीने की पर अब भी  ललक बाकी है 

उनको नज़रों से हुए दूर ज़माना गुजरा 
अपनी साँसों में मगर उनकी महक बाकी है 

दाल सब्ज़ी तो हुए आज बजट से बाहर 
पर गनीमत है कि रोटी पे नमक बाकी है 

गाँव तो अपना नए बाँध के कारण डूबा 
पर उसी नाम से बस कच्ची सड़क बाकी है 

नाम अपना भी बराबर का लिखा था पहले 
अब वसीयत में न हिस्सा है न हक़ बाकी है 

पाँव छूते  हैं 'भरद्वाज' वही  मंजिल को 
राह में जिनको न संभ्रम है न शक बाकी है 

चंद्रभान भारद्वाज