Saturday, August 16, 2014

                 तुझ से न शिकवा कोई

कोई रुतबा है न जलवा है न जज्बा कोई 
ज़िन्दगी फिर भी हमें तुझ से न शिक़वा कोई 

आस अपनी तो बनी बैठी है दुल्हन कब से 
पर न पंडित है न दूल्हा है न मड़वा कोई 

ज़िन्दगी यों तो सुहागिन है सदा से अपनी 
पर वो लगती है अभी जैसे हो विधवा कोई 

अपने बच्चों को सुला देता है कोई भूखा 
पर खिलाता है यहाँ कुत्तों को हलवा कोई 

स्वप्न देखा था कि आएँगे कभी अच्छे दिन
पर न रोटी है न कपड़ा  है न दड़वा कोई 

रास घोड़ों की थमा दी है समय ने उनको 
रथ चलाने का नहीं जिनको तजुरबा कोई 

आँख अख़बार की उन तक ही पहुंचतीं अब तो 
जिनकी पदवी है कि ओहदा है कि रुतबा कोई 

लगता कुर्सी के लिए ये हैं जरूरी शर्तें 
कोई हत्या हो दुराचार हो कि बलवा कोई 

तू 'भरद्वाज' कदम अपने सँभल कर रखना 
तेरी ग़ज़लों पे नहीं जारी हो फ़तवा कोई

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, August 10, 2014

द्वेष इंसान को हैवान बना देता है

द्वेष इंसान को हैवान बना देता है
प्रेम शैतान को इंसान बना देता है

जन्म के वक़्त तो इंसान ही होते हैं सभी
धर्म हिंदू कि मुसलमान बना देता है

यों तो बाज़ार में सिंदूर की क्या है कीमत
पर वो पत्थर को भी भगवान बना देता है

जब भी कद पुत्र का छूता है पिता के कंधे
उसके कंधों  को भी बलवान बना देता है

स्वप्न जब आँखों में पलता  है शिखर छूने का
पथ की चट्टान को सोपान बना देता है

घेर लेता है कहीं घोर अँधेरा जब भी
मन की आँखों को वो द्युतिमान बना देता है

मीठी यादों का सदा साथ चबेना रखना
लम्बी राहों को वो आसान बना देता है

माँ की गोदी ही नहीं प्यार भरा चेहरा भी
बेटे के आँसू को मुस्कान बना देता है

है 'भरद्वाज' अगर कोई असरदार ग़ज़ल
उसका इक शेर ही पहचान बना देता है

चंद्रभान भारद्वाज


Friday, August 1, 2014

दर्द लिपटा है ख़यालों में ये कैसा मुझ से 

दर्द लिपटा है ख़यालों में ये कैसा मुझ से
छोड़ कर देख लिया प्यार न छूटा मुझ से 

फेस बुक पर जो नया दोस्त बना था मेरा 
कर गया मेरी शराफत में वो धोखा मुझ से 

वो है इक साँप सदा ज़हर उगलता मुझ पर 
चाहता है वो मगर दूध बताशा मुझ से 

जिसने इक रोज बुझाए थे दिये सब मेरे 
झिलमिलाता है उसी घर का हर कोना मुझ से 

पंख हैं पर  न उड़ानों की है हिम्मत बाकी 
साहिबो उठ गया क्या मेरा भरोसा मुझ से 

मुझ से वो खैर खबर पूछ गया दुनिया की 
मेरी तबीयत का मगर हाल न पूछा मुझ से 

जब से आँखों में उजालों ने कदम रक्खा है 
अपने चेहरे को छिपाता है अँधेरा मुझ से 

जान पहचान नहीं और न रिश्ता कोई 
नाम जुड़ता है मगर उसका हमेशा मुझ से 

जब भी साधा है निशाना मैंने सच की खातिर 
वक़्त ने माँग लिया मेरा अँगूठा मुझ से 

चंद्रभान भारद्वाज


इक दुआ राह से पर्वत को हटा देती है

इक दुआ राह से पर्वत को हटा देती है
आह की आग  ज़माने को जला देती है

शब्द करते हैं असर जब भी किसी वाणी के
एक आवाज ही मुर्दों को  जगा देती है

चाह जब बढ़ के पहुँचती है मिलन की हद तक
इक नदी खुद को ही सागर में मिला देती है

भूल अपनी पे सजा मिलती है औरों को अगर
वो हमें अपनी निगाहों में गिरा देती है

घर के हालात छिपाते तो छिपाते कैसे
हाल आँगन की ही दीवार बता देती है

प्यार तो सींचता रहता है जड़ें पौधों की
पर घृणा डालों  पे विष बेल चढ़ा देती है 

राख में ढूँढती रहती है सदा चिनगारी
हरिक चिनगारी को ये दुनिया हवा देती है

आपने किस से लिया और दिया है किस को
ज़िंदगी आपके खाते में लिखा देती है

कामयाबी को मदद करती  है नाकामी भी
एक नाकामी कई राह दिखा देती है

नींद आती है मगर स्वप्न नहीं आते हैं
एक इंसान को जब मौत सुला देती है

तख़्त विश्वास का मजबूत बना हो चाहे
कील संदेह की पायों को हिला देती है

नेट पर चैट भी मैसेज भी करती  रहती
पर न वो फोन न वो अपना पता देती है

जिस पे चढ़ती है नशा बन के 'भरद्वाज' ग़ज़ल
उसको 'ग़ालिब' या उसे 'मीर' बना देती है

चंद्रभान भारद्वाज