हौसले करते फतह कठिनाइयों का हर किला
श्रम किया जिसने यहाँ प्रतिसाद भी उसको मिला
कब तलक करते रहोगे यों प्रतीक्षा राम की
उठ स्वयं जड़ चेतनाओं की अहिल्या को जिला
हाथ में छैनी हथौड़ा को उठाओ तो सही
खुद ब खुद ढलती चलेगी मूर्ति में हर इक शिला
चील कौए गिद्ध उल्लू हैं विराजित डाल पर
है मगर निर्वासिता सी बाग़ में अब कोकिला
जय-पराजय दुक्ख-सुख या लाभ- हानि न देख अब
अंग हैं ये ज़िन्दगी के कर न कुछ शिकवा गिला
इक अटल विश्वास से रख राह में पहला कदम
हर कदम पर देखना बनता चलेगा काफिला
उसकी सत्ता के नियम क़ानून हैं बिलकुल सरल
आदमी पाता है अपने-अपने कर्मों का सिला
हर शिरा क्षय ग्रस्त है अभिशप्त है वातावरण
बंद कर दूषित हवाओं आँधियों का सिलसिला
आदमी सोता है 'भारद्वाज' जब चिर नीद में
पूछती है मौत आखिर ज़िन्दगी में क्या मिला
चंद्रभान भारद्वाज