Friday, March 26, 2010

वो गुजरता है पागल हवा की तरह

राह में जिसकी जलते शमा की तरह  
वो गुजरता है पागल हवा की तरह

छलछलाते  हैं  आँसू  अगर   आँख में
पीते  रहते  हैं  कड़वी  दवा  की  तरह 

करना मुश्किल उसे धड़कनों से अलग 
प्राण  लिपटे  तने  से लता की तरह 

प्यार का पुट न हो ज़िन्दगी में अगर
 तो वो लगती है बंजर धरा की तरह 

इक नियामत सी लगती थी जो ज़िन्दगी 
कट  रही  एक   लम्बी  सजा  की तरह 

उड़  गए  संग  झोंकों  के  बरसे  बिना 
जो  घुमड़ते  रहे   थे   घटा   की  तरह

एक  पत्थर  की   मूरत   पसीजी  नहीं 
पूजते   हम   रहे   देवता   की    तरह

हमने प्रस्ताव ठुकरा दिया इसलिए
प्यार भी मिल रहा था दया की तरह

सूझता ही न अब कुछ 'भरद्वाज' को
प्यार सिर पर चढ़ा है नशा की तरह

चंद्रभान भारद्वाज

Saturday, March 20, 2010

आह भी भरने नहीं देता

कसकते हैं मगर इक आह भी भरने नहीं देता 
ज़माना घाव को भी घाव अब कहने नहीं देता 

महत्वाकांक्षाएं  तो   खड़ी   हैं   पंख    फैलाए  
बिछाकर जाल बैठा जग उन्हें उड़ने नहीं देता

कभी तो धुंध ने घेरा कभी घेरा कुहासे ने
अँधेरा अब उजाले को कहीं रहने नहीं देता

नदी के स्रोत पर ही रुक रहा है धार का पानी
मुहाना यार आगे धार को बहने नहीं देता

हुई है इसलिए बोझिल हमारी रीढ़ की हड्डी
विनय उठने नहीं देती अहम् झुकने नहीं देता

समझ पाए नहीं हम आचरण अब तक ज़माने का
कभी जीने नहीं देता कभी मरने नहीं देता

है 'भारद्वाज' जलने को मगर धुँधुआ रही केवल 
समय इस ज़िन्दगी की आग को जलने नहीं देता 

चंद्रभान भारद्वाज

Sunday, March 14, 2010

घर को घर क्या कहें

ईंट पत्थर का है घर को घर क्या कहें
इक अकेले   सफ़र को सफ़र   क्या कहें

कोई   आहट   नहीं   कोई दस्तक   नहीं
बिन प्रतीक्षा रहे दर को दर क्या कहें

जो   तरसता रहा   प्यार की बूँद   को
एक प्यासे अधर को अधर क्या कहें

देख कर   भी   लगे   जैसे   देखा   नहीं
उस  उचटती नज़र को नज़र क्या कहें  

जिसमें जीने का जज्बा बचा ही नहीं
ऐसे मुर्दा जिगर को जिगर क्या कहें

कुछ दिशा का पता है न मंजिल पता
इक भटकते बशर को बशर क्या कहें

छोड़ हमको किनारे पे खुद मिट गई
उस उफनती लहर को लहर क्या कहें

जिसकी गलियों में यादें दफ़न हो गईं
ऐसे   बेदिल शहर को शहर   क्या कहें

जो   कटी है   'भरद्वाज'   प्रिय के बिना
उस अभागिन उमर को उमर  क्या कहें

चंद्रभान भारद्वाज

Friday, March 12, 2010

है बहुत मुश्किल

उजड़ती बस्तियों को फिर बसाना है बहुत मुश्किल
बिलखती आँख  में सपने   सजाना  है बहुत मुश्किल   

बहुत  आसान   आलीशान   भवनों  का   बना  लेना
किसी दिल में जगह थोड़ी बनाना है बहुत मुश्किल 

जहाँ   कंक्रीट  के घर हों लगे   हों पेड़ प्लास्टिक के 
परिंदे को वहाँ तिनके जुटाना है बहुत मुश्किल

भले ही फूल कागज़ के सजा लें आप गमलों  में
तितलियों को मगर उन पर बिठाना है बहुत मुश्किल

क़तर कर पंख पिंजड़े में रखा हो जिस परिंदे को
उसे आजाद करके भी उड़ाना है बहुत मुश्किल

पिता हर एक बेटे को उठाता रोज कन्धों पर
पिता का बोझ बेटों को उठाना है बहुत मुश्किल

सदी ने कर दिया है आदमी इतना अपाहिज अब
बिना बैसाखियों के पग बढाना है बहुत मुश्किल

अगर बाहर लगी तो डाल कर पानी  बुझा सकते
लगी हो आग दिल में तो बुझाना है बहुत मुश्किल

अगर सोया है 'भारद्वाज' तो वह जाग जाएगा
बहाना कर रहा हो तो जगाना है बहुत मुश्किल

चंद्रभान भारद्वाज

Monday, March 1, 2010

फूस पर चिनगारियों का नाम हो जैसे

फूस पर चिनगारियों का नाम हो जैसे 
ज़िन्दगी दुश्वारियों का नाम हो जैसे 

पेड़ अब होने लगा है छाँह के काबिल 
पर तने पर आरियों का नाम हो जैसे  

आह आँसू करवटें तड़पन प्रतीक्षाएं
प्यार ही सिसकारियों का नाम हो जैसे 

कुर्सियों पर लिख रहे हैं लूट के  किस्से 
हर डगर पिंडारियों का नाम हो जैसे 

नाम अपना भी वसीयत में लिखा था कल 
आज सत्ताधारियों का नाम हो जैसे 

दुश्मनी तो दुश्मनी है क्या कहें उसकी 
यारियाँ गद्दारियों का नाम हो जैसे 

लोग 'भारद्वाज' कहते हों भले जनपथ 
पर वहाँ जरदारियों का नाम हो जैसे  

चंद्रभान भारद्वाज