Tuesday, May 4, 2010

उनके माथे पर अक्सर पत्थर के दाग रहे

उनके माथे पर अक्सर पत्थर के दाग रहे
जो  इमली  अमरूदों   आमों   वाले बाग़ रहे

उन कदमों को पर्वत या सागर क्या रोकेंगे
जिनकी आँखों में पानी सीने में आग रहे

अँधियारे आँगन में रहतीं सपनों की किरणें 
जैसे   पूजा घर    में  जलता  एक चिराग   रहे  

कुछ उजले महलों में रहकर भी काले निकले
कुछ काजल की कोठी में रहकर बेदाग़ रहे 

केवल हाथ मिलाने भर से खून हुआ नीला
उनकी आस्तीन में अक्सर  ज़हरी नाग रहे

साँसों की रथयात्रा हरदम रहती है जारी 
जीवन की पीछे चाहे जितने खटराग  रहे 

इतनी 'भारद्वाज' रही प्रभु से विनती अपनी 
सिर पर छाँव रहे न रहे पर सिर पर पाग रहे 

चंद्रभान भारद्वाज   

10 comments:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

बहुत ही सुन्दर रचना है ... हर शेर सच्चाई बयां करता है ... और बहुत असरदार ढंग से करता है ... खास कर ये शेर बहुत अच्छा लगा -
कुछ उजले महलों में रहकर भी काले निकले
कुछ काजल की कोठी में रहकर बेदाग़ रहे

परमजीत सिहँ बाली said...

जीवन का सारा निचोड़ आप की इस गजल मे नजर आ रहा है....बहुत ही उम्दा गजल है....बधाई स्वीकारें।

अंजना said...

उन कदमों को पर्वत या सागर क्या रोकेंगे
जिनकी आँखों में पानी सीने में आग रहे
बहुत ही सुन्दर रचना.....

वीनस केसरी said...

वाह भारद्वाज जी वाह

सरल बात को आप इस तरीके से कह्देते हैं कि दिल में उतर जाती हैं

उनके माथे पर अक्सर पत्थर के दाग रहे
जो इमली अमरूदों आमों वाले बाग़ रहे

हम तो मत्ला ही बार बार पढते रहे आगे बढ़ने का मन ही नहीं किया

हर शेर उम्दा
जितना कहें कम

आपकी गजल पढ़ कर लगता है कि हम पता नहीं क्या लीपा-पोती कर रहे हैं गजल के नाम पर :)

Mohinder56 said...

संवेदन शील भावनाओं से ओतप्रोत दिल को छूती हुई रचना.... लिखते रहिये....हम पढने को जाग रहे.

Rajeev Bharol said...

"उनके माथे पर अक्सर पत्थर के दाग रहे
जो इमली अमरूदों आमों वाले बाग़ रहे"

लाजवाब मतला.
सुंदर ग़ज़ल.

sonal said...

ज़िन्दगी के फलसफे कितनी सहज भाषा में व्यक्त कर दिए

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

उन कदमों को पर्वत या सागर क्या रोकेंगे
जिनकी आँखों में पानी सीने में आग रहे
वाह.....बहुत गहरा भाव..
पूरी ग़ज़ल शानदार.

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

भारद्वाज जी
प्रणाम आपको और आपकी लेखनी को !
किसी एक शे'र को ख़ास तर्जीह देने का अर्थ होगा अन्य शे'रों के साथ नाइंसाफ़ी ।
ख़ूब मुरस्सा ग़ज़ल कही है … वाह -वाह !
फिर भी मेरी संतुष्टि के लिए इन शे'रों को दुबारा सलाम है -

"कुछ उजले महलों में रहकर भी काले निकले
कुछ काजल की कोठी में रहकर बेदाग़ रहे "
"इतनी 'भारद्वाज' रही प्रभु से विनती अपनी
सिर पर छाँव रहे न रहे पर सिर पर पाग रहे "

कृपया ,
शस्वरं पर आप भी पधार कर कृतार्थ करें !


शस्वरं - राजेन्द्र स्वर्णकार

Pawan Kumar said...

उनके माथे पर अक्सर पत्थर के दाग रहे
जो इमली अमरूदों आमों वाले बाग़ रहे
नया मतला है दोस्त.........दरख्तों की बेबसी को क्या ही शानदार तरीके से बयाँ किया है आपने
बाकि शेर भी बहुत ही अच्छे हैं
यह शेर हमारा हुआ......
कुछ उजले महलों में रहकर भी काले निकले
कुछ काजल की कोठी में रहकर बेदाग़ रहे
वाह